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________________ [६३ किरण २] पश्चाताप मैं बड़ा धर्मात्मा हूँ उगता है, धोका देता है। पापी स्नेहसे भर गया । ममताका सागर आँखोंसे निकलने कल कलेक! देख लिया तेरे धर्मका ढोंग ? सच है, लगा, श्मशान भूमिको पैदल ही दौड़ा गया। जाकर दुराचारी, लोगोंको धोखा देनेके लिए क्या क्या पुत्रको छातीसे लगा लिया, रोता रहा, इतना रोया नही करते। जिसे मैं राज-सिंहासन पर बिठाना जितना जीवन में कभी नहीं रोया था। आज हदय में चाहता था, वह इतना दुराचारी। अय जल्लादा! इतना पुत्रस्नेह था जितना पुत्र-जन्म के समय भी नहीं इस पापीको ले जाओ, मार डालो, में न्यायका था। आज बिना विचारे दी गई राजाज्ञा जनताको गला नहीं घोंट सकता। प्रेरणा दे रही थी कि बिना विचारे कुछ मत करो। जनता चित्र-लिखेकी तरह सब कुछ सुन रही थी, पिता भाज पुत्रसे क्षमा मांग रहा था, एक बडे माँस बहा रहा था, और कह रहा था-इतना देशका अधिपति आज सत्यके आगे झुक रहा था. बाप तो नहीं था, जो प्राण-दण्ड दिया अपनी भूलको मान रहा था, पश्चातापसे हृदय जाय। कोई कह रहा था-राजा बड़ा न्यायवान है शुद्ध कर रहा था, आँखोंके आँसू आज उसके इस जो अपने पत्रको भी सजा देनेसे नहीं चूका । वास्तवमै पापको धो रहे थे। बोला-पुत्र, क्षमा करो। राजा ऐसा ही होना चाहिये।। वारिषेण अपने पूज्य पिताकी मोहके वश यह राजमा थी। जल्लाद वध्य-भूमिमें वारिपेणको विचित्र दशा देखकर कहने लगा-पिताजी! यह ले गये। वह अब भी कोंकी लीला और संसारकी आप क्या कहते हैं, आप अपराधी कैसे आपने तो इस दशापर मुस्करा रहा था, शान्त था, गम्भीर था, अपने कर्तव्यका पालन किया है और सस समय उसकी शान्तमुद्रा देखते ही बनती थी। पालन कोई अपराध नहीं है। मान लीजिये मा . जल्लादने तलवार उठाई। एक बार उसका भी स्नेहमें पाकर दंडकी आज्ञा न देते, तो जनता या हृदय काँप गया । अपार जन-समूह था मानों समझती। आपने अपने पवित्र शकीकिसी नदी में भयंकर बाढ़ आगई हो । जल्लादने है। इसमें क्षमाकी कोई आवश्यकता नहीं है। इससे तो तलवारका प्रहार किया। वारिषेण पहले जैसा ही आपको प्रसन्न होना चाहिए। मुस्करा रहा था। कई तलवारके वार किये गए पर यह तो मेरे हो पापकर्मका उदय था, कि निरराजकुमार वारिषेणकी गर्दन पर एक भी घाव नहीं पराधी होते हुए भी अपराधी बना, फिर भी इसका हुधा । जनताका कौतूहल हर्ष में परिणित हो गया, मुझे तनिक भी दुख नहीं। हृदयका हर्ष गगनभेदी नारोंमें निकल पड़ा। वारि- वारिषेणकी सत्यता और साधुताकी चर्चा घर घर षेण निर्दोष है, वारिषेणकी जय हो, सत्यकी जय हो। होने लगी, लोगोंने वारिषेणके चित्रको दीवालों राजाने जब इस अलौकिक घटनाको सुना, सुन- कागजों पर ही नहीं रहने दिया बल्कि हृदय, हृदयकर अपनी बुद्धि पर बारंबार पछताने लगा । मैंने में अंकित कर लिया। लोग कहने लगे यह मानवबिना किसी जांचके प्राण दण्डकी आज्ञा देदी, यह रूपमें देवता है । न जाने, किसने चोरी की थी और राज-धर्म नहीं है, विवेक नहीं है, न्याय नहीं है, यह नाम पढ़ी वारिपेणके । देखो उस नीचको नीचता सरासर अन्याय है, मूर्खता है। चाहे बात सच हो या और वारिषेणकी साधुता। झूठ, सारी बातोंकी छानबीन करने के बाद ही न्याय इस प्रकार वारिषेणकी प्रशंसा सुन सुन कर करना न्याय है अन्यथा अन्याय है। क्रोधमें पाकर विद्युचोर मन ही मन बड़ा पछता रहा था, हर समय यकायक ऐसा करना महापाप है। काश! राजकुमार सोचता था विचारता था अपनी नीचता पर । उस मर जाता तो जनता यही समझती वारिषेण चोर था, नीचता पर जिसने ये सारे कमे कराये थे उसे अपना बहुत कुछ पश्चाताप करते हुए राजाका हृदय पुत्र- मुंह दिखानेमें भी संकोच हो रहा था, आज उसके
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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