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घष १४]
जनप्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह
जो दिणि-दिण एयई करइ विहेयई,
मणय जम्मु तहो पर सहलु ॥८॥ इय छपकम्मोवएसे महाका सिरि अमरकित्ति विरहए महा कब्वे गुणपाल चिरिणिशंदण महाभच अंवपसायाणु मण्णिए छक्कमणिण्णय वरणहोणाम पढमो संधि समत्तो। अन्तिमभागः
ताई मुशिवि सोहेवि णिरतरु, होणाहिड विरुद्ध णिहियक्खरु । फेडेवउ ममत्तु भावंतिहि, अम्हहं उप्परि बुद्धि-महतिहिं । छक्कम्मोवएसु बहु भवियहो, वक्खाणिवउ भत्तिई णवियहो । अंबपसायइंचाच्चपिपुर, गिह-छक्कम्म-पवित्त-पविते । गुणवालहु सुपण विरयाविउ, अवरेहि मि णियमणि संभाविड । बारह सयई समत्त-चयालिहि, विक्कम-संवच्छरहु विसालहिं । गयहि मि भवयहु पक्खंतरि, गुरुवारम्भि चउहिसि वासरि । इक्के मासे यह सम्मत्तिल, सई लिहियउ बालसु अवस्थित । णदउ परसासण-णिण्णासणु, सयलकाख जिणणाहहु सासणु। गंदउ तहवि देवि वाएसरि, जिणमुइ-कमलुभव परमेसरि । णदड धम्मु जिणिदें भासित, शंदउ संधु सुसीलें भूसिउ। णंदउ महिवह धम्मासत्तउ, पय परिपालण-णाय-महंतउ । णंद भावयणु णिम्मल-दसणु, बक्कम्महि पाविय जियसंसणु । शंदउ अंबपसाउ वियवखणु, अमरसूरि-लहु-बंधु सुलक्खणु । शंदड प्रवकवि जिण-पय-भत्तड, विबुह-वग्गु भाविय-रययत्त ।
पोट बिरु तावहि सत्यु हु अमरकित्ति-मुहि-विहित पयते। जावहि महिमारुव-मेरु-गिरि-यायालु
अंब पसायणिमित्त ॥८॥ इय छक्कम्मोवएसे महाकसिरि-अमरकित्ति-विरहएमहाकग्वे महाभत्र अंबपसायाणु मरिणए तव-दाणघण्णणोणाम चउदसमो संधी परिच्छेद्यो समत्तो॥छ। ॥ संधि १४॥ पुरंदर विहाण-कहा (पुरंदरविधान कथा)
अमरकीर्ति धादिभाग:
परमप्पय भावणु सुहगुण पावण, बिहणियजम्म-जरा-मरणु। सासय सिरि सुदरु पणष पुरंदर, रिसहुविवि तिहुयण सरण । सिरिवीर जिणंदे समवसरण,
सेणियराएँ पुण्याणिहि। जिणपूय-पुरंदर विहिकहि कहिउ तं,
बायपाहि विहिय दिहि। धन्तिम भाग:
अवराहमि सुरगिरि सिहरत्याई, तह गंदीसर दीवि पसत्थई । जाइ वि बहु सुरवर समवाएँ, अइत्तिए कय दुदहिनाएं। रहा कि सुरतरु कुसुमिहि अंचह,
शिरवाह पुरण विसेसे संचह। पत्ताजिण पूय पुरंदर विहि करह एक्कवार जो एस्थ गरु । सो अब पसाइह वेह बहु अमरकित्ति तिय सेसा ॥
जिणदत्त चरिउ (जिनदत्तचरित)
पं लक्ष्मण, रचनाकाल सं० १२७५ मादि भागः
सब सरकल इंसहो, हियकल हंसहो सेयंस बहा। भणमि भुषण कलहंसहो रणकलहंस हो णविवि जिणहो जिणयत्त कहा।