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________________ ३८] अनेकान्त [ वर्ष १४ : इह अत्थि परम-जिण-पय-सरणु, अचिय:गुडखेड विणिग्गउ सुहचरणु ॥१॥ सेटिठ सिरि तक्म्वडेण भणियं च नमो समन्थमाणेण । सिरिलाडवग्गु तहि विमल जसु, वड्ढइ वीरस्स मणे कइत्त-करणुज्जमो जेण ॥१॥ कइदेवयत्तु निवुड्ढ कसु । मा होंतु ते कईदा गरुय पबंधे वि जाण निम्बूढा । बहु भावहिं जे वरंगचरिउ, रमभाव मुग्गिरंसी विथरई न भारई भुवणे ॥२॥ पद्धडिया बंधे उद्धरित। संतिबाई वाईविहु वगणुक्करि सेमु फुरिय-विण्णाणो कवि गुण-रस-रंजिय-विउस सह, रस-सिद्धि संठियत्थो पिरलो वाई कई एक्को ॥३॥ विस्थारिय सुद्धय वीरकह। विजयंतु जग कइणो जाण वाणी अइट पुश्वत्थे । भब्बरिय-बंधि विरइड सरसु, उज्जोइय धरणियलो साहइ वहिव्व णिब्बई ॥४॥ गाज्जइ मतिउ तारु जसु । जाणं समग्ग सहो हमे हुउ रमइ मइ फडक्कम्मि । नच्चिज्जइ जिण-पय सेवाह, ताणं पिहु उवरिल्ला करस व बुद्धी परिप्फुरई ॥५॥ किउ रासउ अचादेवि यहि । इय जबुस्वामिचरिए मिगार वीर-महाकवे महाका सम्मत्त-महा-भर-धुर-धरहो, देवयन-सुअ-वीर-विरइए सणिय-समवसरणागमो णाम तहो सरसइ-देवि लद्ध-वरही। पढमो संधि ॥१॥ नामेण वारु हुड विणयजुत्रो, अन्तिम प्रशस्ति:संतुव गभब्भ पढमसुत्रो । नरिसाण सय-चउक्के सत्तरि-जुत्ते जिणिंद-वीरस्स । पत्ता-अलिय-सर-पक्कय, कइकलिवि श्रापुसिउ सुउ पियरें। शिवाण उच्चण्णे विक्कमकालस्म उप्पत्ती ॥१॥ पायय पर वल्लहु जणहो, विरइज्जउ किं इयरें ॥४॥ विक्कम णिव कालायो छाहत्तरि दस-सएसु वरिमाणं । अह माग्वाम्म धण-कण दरसी, माहम्मि मुद्ध-पक्वे दसमी-दिवमम्मि संतम्मि ॥२॥ नयरी नामेण सिंधु-बरिसी। सुणियं पायरिय - परंपराए वीरेण वीर णिहिठं । तहिं धक्कड़-वग्गे वंस-तिलउ, बहुलल्थ-पसन्थ-पयं पवरमिणं चरियमुद्वरिय ॥३॥ मह सूयण णंदणु गुणणिलउ॥ इच्छे (इटे)व दिण मेहवण- रट्टणे वड्ढमाण जिण-पडिमा णामेण संहि तक्खडु वसई, तेणा वि महा कइणा वरिण पर्या-या पवरा ॥॥ जम पडहु जामु निहुयणि रसई । बहुराय-कज्ज-धम्मन्थ-काम गोट्ठी-विहत्त समयम्य । मह कइ देवदत्ता परम सुही, वीरस्म चरिय - करणे इक्को सवच्छरो लग्गो ॥२॥ तें भणिउ वीरु-वय सुवण-दिही ॥ जस्स कय-देघयत्तो जणणो सच्चरिय-लद्धमाहप्पो । चिरु कइहि बहुलगंधुद्धरिउ, सुह-सील सुद्धमो जणणी सिरिसंतुआ भणिया ॥६॥ संकिल्लाहि जंबुसामिचरित। जस्स य पमण्ण वयणा लहुणो सुमह स सहोयरा निषिण । पडिहाइ न वित्थर अज्जु जणे, सीहन्नलकणंका जसइ-णानेति विक्वापा ॥७॥ पडि भणइ वीरु सकियउ मणे ।। जाया जस्म मणिट्ठा जिवइ पोमाव: पुणा बीया । भो भन्वबंधु किय तुच्छ कहा, लीलावइत्ति तइया पच्छिम भज्जा जयादेवी ॥८॥ रंजेसह केमवि सिट्ठ सहा । पढम कलत्त गरुहो संत्ताण कइत्त विउवि बारोहो। एत्यंतरे पि सुणसीह सरहो, विणय-गुण-मणि-णिहाणो तणउ तह णेमिचंदोत्ति । तक्खडु कणिठु बोल्लइ भरहो।। सो जयउ कह वीरो वोरजिणंदस्स कारियं जेण । विस्थर संखेवहु दिव्व झुणी, पाहाणमयं भवणं पियरुद्द संण मेहवणे ॥६॥ गुरु पारउ अंतरु वीरु सुणी। अह जयउ जस्म णिब्वासो जसणाउ पंडिउत्ति विक्खायो। पत्ता-सरि-सर-निवाणु-ठिउ बहु विजलु,सर सुन तिह मणिपज्जइ वीर जिणालय सरिसं चरियमिणं कारियं जेण ॥१०॥ पोवढं करयत्थु विमलु जणेण,अहिलासें जिह पिज्जइ ॥२॥ इति जंबूसामिचरियं समत्त ।
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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