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________________ वर्ष १४ श्री बाबा लालमनदासजी और उनकी तपश्चर्याका माहात्म्य [४६ अपनी जाप पूरी न करूंगा तब तक मैं मन्दिरसे सांसारिक पदार्थोके भोगोपभोगसे रुचि हट गई, बाहर नहीं जाऊंगा, और न अन्न-जल ही ग्रहण देह-भोगों से विरक्ति की भावना जोर पकड़ने लगी। करूंगा । फिर सोचते हैं-भगवन् ! मैंने ऐसा कौन-सा अब आपको घरमें रहना कारागारसे भी अधिक पाप किया है जिससे यकायक मेरी दृष्टि चली गई। दुखद प्रतीत होने लगा। दिल चाहता था कि किसी मुझे तो आपकी ही शरण है। आपके गुणों का संयमीके चरणोंमें रहकर आत्म-साधना करूं । चिन्तन ही स्व-पर-विवेकका कारण है, उससे ही परन्तु इस समय यह संयोग मिलना अत्यन्त कठिन स्वात्म-निधिका परिचय मिलता है और वही मेरी था। चारों ओर अपनी दृष्टि दौड़ाई, परन्तु कोई विपत्तिसे रक्षा करेगा। अतः अब मैं यहाँसे उसी ऐसा साधु उन्हें प्राप्त न हुआ जो उनकी मनःस्थिति समय जाऊंगा, जब मेरी दृष्टि पुनः अपने रूपमें को सुदृढ करता, वे सुबह शाम बारह भावनाओंथा जायगी, और मैं माला पूरी कर अपनी जाप का चिन्तन करते, कभी पाठ करते और कभी स्वापूरी करने में समर्थ हो जाऊंगा। इस तरह लाल- ध्याय करते या मन्दिरजीमें जाकर दर्शनादि क्रिया मनजी को बैठे हुए एक दिन व्यतीत हो गया। करते, परन्तु मनकी गति अधीर हो रही थी। वे दसरा दिन भी इन्हीं विचारों में बीता। परन्त चाहते थे कि घरबार छोड दं और आत्म-साधना तीसरे दिन उन्होंने मालाके दाने ढढने का अच्छा में निरत रहूँ। पर घर छोड़ना सहज कार्य नहीं था प्रयत्न किया और काफी दाने प्राप्त हो गये, प्रायः एक फिर भी आपने रात्रिमें बहुत देर तक विचारदादाने की ही कमी रह गई। इस तरह तीसरा दिन विनिमय किया और प्रातःकाल स्नानादि क्रिया से भी वीत गया, किन्तु चौथे दिन प्रातःकाल ज्योंही मुक्त होकर जिनमन्दिर जी में गए और वहाँ पार्व आपने अवशिष्ट दाने ढूढने का यत्न किया और प्रभुकी स्तुति कर मनमें यह निश्चय किया कि मैं अपना हाथ वेदी की दाईं ओर के कोने की ओर बिना किसी गुरुके जिनेन्द्रकी मूर्तिके समक्ष यह बढ़ाया, उसी समय वेदी का किनारा उनके मस्तक प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं नियमतः सप्तम प्रतिमाको में लगा उसके लगते ही खून की धारा बह निकली, धारण करता हूँ परन्तु यथाशक्य जल्दी हो चुल्लकउस विकृत खून के निकलते ही आपको निर्मल दृष्टि के व्रतोंका अनुष्ठान करने की मेरी भावना है। ज्यों की त्यों प्राप्त हो गई। दृष्टि प्राप्त होते ही आप- अतः मैं एक लगोटी और एक छोटी चादर तथा ने अपनी माला पूरी कर जाप पूरी की और जिनेन्द्र- पीछी कमंडलु रक्खूगा, तथा दिनमें एक बार शुद्ध की स्तुति कर बाद में घर गए और नैमित्तिक क्रिया- प्रासुक आहार-पान करूंगा । ऐसी प्रतिज्ञा कर ओं से निबट कर भोजन किया । भोजन के पश्चात् घरसे बाहर चले गए। आपके विचारों में मौलिक परिवर्तन हो गया। श्रद्धा में दृढता और निर्मलता आगई। आपने विचार आपने अपने तपस्वी जीवन में अनेक प्रामों. किया कि अब मुझे सब व्यवहार व्यापार छोड़ कर नगरों और शहरों में बिहार किया । देहली खतौली, साधु जीवन व्यतीत करना चाहिये । घरमें रहकर मेरठ, हापुड़, सुनपत, मुजफ्फर नगर, सहारनपुर तो आत्म-साधना नहीं बन सकेगी और इस समय आदि में वे अनेक बार गये, और वहां की जनताआस-पास किसी योग्य गुरूका सांनिध्य भी प्राप्त को धर्मोपदेश-द्वारा कल्यण मागेमें लगानेका नहीं है जो मेरी भावनाको मृतमान कराने में समर्थ प्रयत्न किया। उन्होंने गांवोंकी जनतासे केवल हो सके और मुझे देह रूप कारागारसे छुड़ाकर जीव हिंसा ही नहीं छुड़ाई, प्रत्युत हरे वृक्ष काटना भव-पासके छेदने में मेरा सहायक बन सके। या हरी घास व ईख आदि जलाना, जुआ, चोरी, मांस व मदिरा आदि का त्याग करवाया। साथ वैराग्यको भोर ही जहाँ जिन-मन्दिर नहीं हुए, वहाँ उन्हें भी बनअब आपकी परिणति अत्यन्त उदासीन होगई, वानेकी प्रेरणा की। परिणामस्वरूप अनेक मन्दिरों
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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