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________________ अनेकान्त [वर्ष १४ का निर्माण भी उत्तरप्रांत में उनके समय किया महत्वपूर्ण जीवनमें पात्म-श्रद्धाकी दृढ़ता उत्तरोत्तर गया, जो अब भी मौजूद हैं। वृद्धि पाती गई और उधर कठोर तपश्चर्यासे चित्तसुनपतका रथोत्सव शुद्धि भी होती गई। इसीसे उनके जीवनमें जो ___ इस तरह आप विहार करते हुए सुनपत पहुँचे। घटनाएँ घटित हुई, उनमें कितनी ही घटनाएँ बड़ी सुनपत एक बहुत प्राचीन नगर है। यह उन श्वनि ही महत्वपूर्ण और दूसरोंको आश्चर्य जनक प्रतीत लोगोंका प्राचीन स्थान था, जो भारतकी प्राचीन होती है, परन्तु उनकी दृष्टि में वे साधारण रही आर्य परम्पराके अनुयायी थे । श्वनिपदका अपभ्रंश है। यदि उनकी उपलब्ध या सुनी जानेवाली सभी विगड़ा हुआ रूप अब सुनपत रह गया। यह नगर घटनाओंका उल्लेख करते हुए उन पर विचार किया शाही जमाने में भी खूब सम्पन्न तथा विशाल दुर्ग जाय तो एक बड़ा प्रन्थ हो जायगा । परन्तु इस और उसकी प्राचीरोंसे संरक्षित था, जो अब धरा- छोटेसे लेखमें उनकी कुछ मार्मिक घटनाओंका ही शायी होगया है। जैनियोंका यह प्रमुख केन्द्र रहा उल्लेख करनेका यत्न किया जायगा, जिनका उनके है। यहां १२वीं १३वीं शताब्दीसे भट्टारकोंकी व्यक्तित्वके साथ खास सम्बन्ध रहा है। आपका प्राचीन गही रही है. पर वह अब सदाके लिये तपस्वी जीवन बड़ा ही निस्पृह और उदार रहा है। समाप्त होगई । उस समय अनेक जैन ग्रंथ वहाँके उसकी सबसे बड़ी विशेपता यह थी कि, जब वेध्यानस्थ श्रावकों तथा मट्टारकों द्वारा प्रतिलिपि किये व कराये खड़े होते थे तब चित्र लिखितसे होजाते थे, उनकी गये थे जो यत्र तत्रके शास्त्र-भण्डारोंमें उपलब्ध दृष्टि निष्कंप और निर्मल रहती था। वे कड़ीसे होते हैं । यहांके भट्टारक दिल्ली, हिसार, आगरा कड़ी धूपमें और सर्दीमें घण्टों श्रात्म-चिंतन करने में और ग्वालियर मादि स्थानोंमें विचरण करते रहते लीन रहते थे। ध्यान-मुद्राके समय वे कभी किसीसे थे।खेद है कि वहकि भट्टारकीय शास्त्रभण्डारक बोलते न थे किन्तु मौनपूर्वक ही स्वरूप चिन्तन ३००० हजार हस्तलिखित ग्रन्थ कुछ वर्षे हुए पन किया करते थे। शारीरिक-वेदनाको वे प्रसन्नताके वाडीकी पानकी पुड़ियोंमें काममें लाये गए। परंतु किसी जैनी भाईने उनके संरक्षणका कोई प्रयत्न साथ सहते थे पर उससे चित्तमें मलिनता या नहीं किया। ऊपरके कथनसे नगरकी महत्ता, और खिन्नताको कोई प्रश्रय नहीं देते थे । यद्यपि वें उत्तम प्राचीनताका अन्दाज लगाया जा सकता है। यहां भावकके व्रत पालते थे, तथापि निर्मोही होनेके जैनियोंकी जन-संख्या भी अच्छो रही है, और वे और कारण उनकी भावना भावमुनिसे कम न सम्पन्न भी रहे हैं। बाबा लालमनजीने यहां संवत थी। बाह्य-शुद्धिकी ओर भी उनका विशेष ध्यान १६४६में चातुर्मास किया था, और चातुर्मासके बाद मान लिया था और चालमिकेबा रहता था, क्योंकि बाल-अशुचिता अन्तरके परि. वहाँ एक रथोत्सव करनेकी प्रेरणा की गई थी। प्रवाई णामोंको मलिन बनाने में साधक होती हैं। अतः वे सुनपतका रथोत्सव बड़ी शान-शौकतके साथ सम्पन्न अन्तर और बाह पवित्रताका खास ध्यान रखते थे। हुधा था। इस रथोत्सवके सम्बन्धमें राजवैद्य वे जिस किसी व्यक्तिके यहां थाहार विधिपूर्वक शीतलप्रसादजीने एक लावनी भा बनाई थी जिसकी लेते थे, वे उससे कोई खास नियम वो नहीं करवाते एक जीर्ण-शीर्ण मुद्रित प्रति आपके ज्येष्ठ पुत्र वैद्य- थे किन्तु हिंसासे वचने के साथ साथ उसकी उंगलियों राजश्री महाबोर प्रसादजीकी कृपासे मेरे देखने में के नाखूनोंको जरूर पिसवाते थे, जिससे नाखूनोंमें बाई है। मलका सम्पर्क न रह सके। उनके आहारमें जिस तपस्वी जीवन और अन्य घटनाएँ मैंसका दूध उपयोगमें लिया जाना था उसे अपने आपका तपस्वी जीवन बड़ा ही सुन्दर रहा है। सामने नहता धुलवाकर साफ करवाते थे और बाप केवल इच्छाओंके ही निरोधक नहीं थे किंतु स्नानकर स्वच्छ वस्त्र पहनकर दूध निकाला जाता इन्द्रियोंका दमन भी करते। पर उन्हें बाह किसी था। पर बच्चे के लिये दोबन छोड़ दिये जाते थे। भी पदार्थसे विशेष राग नहीं था। भापके इस जहां अपनीभावश्यक क्रियाभोंमें सावधान रहते
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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