________________
वर्ष १४] श्री बाबा लालमनदासजी और उनकी तपश्चर्याका माहात्म्य थे, वहां उपवास आदि में भी सुदृढ़ रहते थे। समय बैठे पाया । सामने जाकर प्रणाम किया और वापिस पर सामायिक करना और समागत विघ्न-बाधाओंको चलनेके लिये कहा, परन्तु कोई उत्तर नहीं मिला। निर्भयताके साथ सहना । वे कहा करते थे कि जो तब वे सज्जन धर्मशालामें वापिस गए, और प्रतिज्ञा या नियम जिस रूपमें कर लिया हो उसे सब समाचार अपने साथियोंसे कहा । प्रातःकाल सिंह-वृत्तिके साथ पालना चाहिये और सुख-दुःखमें संघके कुछ और आदमी उनके साथ वहां गए जहां समभाव रखना चाहिये। सामायिकके समय वे बाबाजी ध्यानस्थ बैठे थे । बोलने पर उन्हें कोई इतने आत्म-विभोर होजाते थे तथा शरीरसे उत्तर नहीं मिला, पर उन्हें उसी तरह ध्यानस्थ पाया, निष्पृह और हलन-चलन क्रियासे शून्य ठूठके तब उन्हें बड़ी चिन्ता हुई, मालूम नहीं क्या. कारण समान निश्चल एवं मूर्तिके समान सुस्थिर हो जाते है ? दो दिन हो गए, पर बाबाजी ध्यानस्थ ही बैठे थे कि दूसरा कोई भी व्यक्ति उनकी वृत्तिका पता नहीं हैं। उन्होंने आहारादि कुछ नहीं किया। वे वापिस चला सकता था, वह तो दूरसे ही बाबाजीको चले गए । तीसरे दिन उस सर्पने आकर स्वयं देखकर गद्गद होकर भक्तिसे उन्हें प्रणाम करके विष चूस लिया और तब वे अपना ध्यान पुरा करके चला जाता था। तपश्चर्याके साथ आत्मश्रद्धा, धर्मशाला पहुँचे, और नित्यक्रियासे निबटकर श्रीतेजस्विता, और यथार्थवादिता उनकी वचनसिद्धिमें गिरिराजकी सानन्द यात्रा की। यात्रासे लौटनेपर कारण थे।
संघके सभी सज्जनोंने बाबाजीको प्रणामकर उन्हें श्रीसम्मेदशिखरकी स-संघ तीर्थयात्रा घेर लिया, और लगे उनसे पूछने, तब बाबाजीने __ संवत् १९५६में बाबा लालमनदासजी हापुड़ कहा कि पहले जिनमन्दिर में दर्शन करल तब मैं
और दिल्लीके जैनियोंके साथ श्रीसम्मेद- आपको उन दिनोंकी बात बतला दूंगा, निश्चिन्त शिखरकी यात्रार्थ गए थे। यात्रियों में रहो । मंदिरजीसे आकर आहार होचुनेके बाद ला० रामचन्द्रजी और मुन्शीलालजी आदि बाबाजीने स्वयं उस घटनाको बसलाया, और कहाप्रमुख थे। वहां पहुँच कर बाबाजी मधुवनके कि मेरी प्रतिज्ञानुसार उस सर्पने स्वयं आकर अपना जंगल में एक शिला पर सामायिकके लिये पर्यकासन विष चूस लिया था, तभी मैं निर्विष होकर आपके से बैठ गए । दैवयोगसे वहाँ एक सर्प आया और सामने उपस्थित हूँ। और मैंने सानन्द तीर्थयात्रा की उसने बाबाजीके पैरमें काट लिया, तब बाबाजीने यह है। अगले दिन सब लोग यात्रार्थ पहाइपर पुनः प्रतिज्ञा की, कि जब तक वह सर्प स्वयं आकर अपना गए । वापिस आनेपर ला० मुंशीलालजीकी मां विष नहीं चूम लेता, तब तक मैं इसी शिला पर ध्याना- बुखारसे पीडित होगई । बुखार इतना जोरसे था वस्थित रहंगा मेरे तब तक आहार आदि का कि वे तन-मनकी सुध भूल गई। उनकी बीमारीसे सर्वथा त्याग है । भगवन ! क्या मैं तीर्थयात्रासे संघके साथीजनभी व्याकुल हुए और सभी संघमें वंचित रहूंगा जिसके लिये इतनी दूरसे श्रीपार्श्व- चिन्ताकी लहर दौड़गई। आखिर विवश होकर प्रभु की वन्दनाके लिये आया हूँ। नहीं, मैं जरूर उन्होंने सब हाल बाबाजीसे निवेदन किया । तब यात्रा करके सानन्द वापिस जाऊँगा । बाबाजी बाबाजीने कहा कि चिन्ताकी कोई बात नहीं है। प्रतिज्ञाको बड़ा महत्व देते थे और उसके पालनेमें तुम इन्हें लेजाकर सीतानालेमें स्नान करात्रो वे वे जरा भी शिथिलता नहीं करते थे। उनमें अटूट अच्छी हो जावेंगी। कुछ लोगोंकी रायमें यह बात साहस और धीरता थी । वे स्वरूपचिन्तनमें तल्लीन नहीं जंची, कि उन्हें बुखारमें सीतानाले ले जाकर होगए, इस तरह उन्हें एक दिन व्यतीत हो गया। पर स्नान कैसे कराया जाय ? परन्तु फिरभी बाबाजीकी वे अपने ध्यानसे जरा भी विचलित नहीं हुए। जब आज्ञासे उन्हें डोलीपर सीवानाले लेजाया गया, उनके साथ वाले बाबाजीको ढूढते हुए वहां गए, उसमें स्नान करते ही उनका बुखार दूर होगया। और तब उन्हें पासही जंगल में एक शिलापर ध्यानस्थ उन्होंने कहाकि मैं पहाइपर यात्रा करके ही धर्म