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________________ अनेट्ट % ED अनेकान्त [ वर्ष १४ ____ एक बार आपने मेरठके एक दूसरे हलवाई भूल में भी ऐसा कोई कार्य निष्पन्न न हो जिससे कल्लूमल के साथ साझा करके गढ़के मेले में जानेका दूसरोके ईमानको ठेस पहुंचे। निश्चय किया । गाड़ी में दोनों दुकानोंका सामान था इसके बाद उन्होंने फलों और शाक बेचनेकी और साथमें उसी गाड़ीमें कल्लूमलजीके बच्चे भी दुकान करली थी, उसे भी उन्होंने कुछ समय तक बैठे थे। दैवयोगसे उनमें से किसी एक छोटे बच्चे. ही कर पाई। जब ला कल्लूमल जी गढ़के मेलेसे ने गाडीमें सहसा पेशाब करदी और उसके छींटे वापिस आये तब परस्परका साझा बांट दिया सन्दक और उसमें रक्खी हुई कुछ मिठाई पर भी गया। उस समय भी ला०लालमनदासजीने इस बातपड़े। इस बातको देख कर लाला लालमनदास का ध्यान रखा कि जिस मिठाई पर बच्चेकी पेशाब जीसे न रहा गया और उन्होंने ला० कल्लूमल जीसे के छींटे पड़े थे उसके पैसे नहीं लगाए और आगे कहा कि जिस मिठाईमें पेशाबके छींटे पड़ गए हैं उस व्यापारसे भी मुख मोड़ लिया। इस तरह घरउसे न बेचा जाय, किन्तु उसे बाहर फिकवा दीजिये, में कुछ दिन और व्यतीत करने पर एक दिन सहसा उसको बेचनेकी आवश्यकता नहीं। परन्तु लाला उनकी दृष्टि चली गई, और वे पदार्थोके अवलोकन कल्लूमलजी इस प्रस्तावसे सहमत न थे, उन्होंने करने में सर्वथा असमर्थ हो गए । इससे केबल उन्हें कहा ऐसा करना ठीक नहीं है । छींटे ही तो पड़े हैं ही कष्ट या दुःख नहीं हुआ किन्तु इससे उनके कोई हर्ज नहीं, मैं मिठाई नहीं फेंक सकता, उसमें परिवारके लोगोंको भारी ठेस पहुंची और उन्हें क्या बिगड़ गया, अन्दर की चीजें तो कोई खराब अपना पारिवारिक जीवन बिताना दूभर हो गया। नहीं हुई। दूसरे वह अबोध बालक ही तो ठहरा, पर क्या करें. कोई चारा नहीं था। उदयागत उसका कोई विचार नहीं किया जाता । यह सुन कर शुभाशुभ कर्मका फल अवश्य भोक्तव्य है, अतः वे लालमनदासजी अपनी दुकानका सब सामान शान्त रहे, यद्यपि दृष्टि जानेसे आपको भारी छोड़ कर बीच में से ही घर वापिस लौट आए। आकुलता उत्पन्न हो गई, और जीवन भार-स्वरूप लोगोंके पछने पर कुछ भी उत्तर नहीं दिया। परन्तु अँचने लगा. परन्तु कर्मके आगे किसकी चलती घर आते ही उनके विचारोंमें एक तूफान-सा उठ है. यही सोच कर कुछ धीरज रखते। परन्तु बराबर खडा हो गया-विचारों का तांता बराबर जारी यह सोचते कि मैंने ऐसा कौन घोर पाप किया रहा, वे सोचने लगे कि देखा, इस मानव जीवन जिससे नेत्र विहीन होना पड़ा । अस्तु, आपके को बितानेके लिये मनुष्य कितनी विवेक-हीन मनमें यह विचार उत्पन्न हुआ कि मैंने कुछ दिनोंसे प्रवृत्ति करता है-वह कितना खुदगर्ज है, शुद्धि- जिन दर्शन नहीं किये, परन्तु दुःख है कि मैं वहाँ अशुद्धियोंको भी नहीं देखता, वह केवल पैसा पहुँच कर भी जिनमूर्तिको नहीं देख सकता। उपार्जन करना ही अपना ध्येय बनाये हुए है । ऐसा अतः किसीका सहारा लेकर किसी तरह मंदिर जी विवेक-हीन जीवन बितानेसे तो कहीं मर जाना में पहुँचे और भक्ति भावसे दर्शन करके एक अच्छा है, अथवा सब कौटुम्बिक झंझटोंको छोड़ स्थान पर बैठ गये और उन्होंने एक माला मंगवाई। कर साधु हो जाना । पर विवेकको खोना अच्छा माला हाथ में लेकर जाप कर रहे थे कि वह अकनहीं है और न दूसरोंके धर्म तथा ईमानको खोना स्मात् टूट गई और उसके दाने इधर-उधर बिखर ही अच्छा है । इससे मुझे जो ग्लानि और कसक गए। कोई दाना किसी कोने में गिरा कोई किसी होती है उससे वचनेका उपाय करना चाहिये। दूसरे कोने में, और कोई दाना वेदीके पासके किनारे दूसरे हलवाईका अपना पेशा भी ठीक नहीं है, परन्तु वाले खूट पर गिरा । बेचारे लालमनजी उन दानोंको वह मेरी आजीविकाका साधन होनेसे उसे जल्दी हाथ से टटोलते-तलाशते रहे परन्तु पूरे दाने नहीं ही कैसे छोड़ा जा सकता है। फिर भी यथा समय मिल सके । तब आपने यह प्रतिज्ञा की कि जब तक उससे मुक्त होनेका प्रयत्न करूंगा। भगवन् ! मुझसे मैं सब दाने दंढ कर माला पूरी न कर लूगा और
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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