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________________ श्रीबाबा लालमनदासजी और उनकी तपश्चर्याका म ५० (परमानन्द जैन) नीवन-परिचय अपनी सभी क्रियाएँ विवेक पूर्वक करते हु५ जान "होनहार विरवान के होत चीकने पात" यापन करते थे। चाहे नफा कम हो या ज्यादा, इसकी वे पर्वाह नहीं करते थे और ग्राहकोंको वे यह कौन जानता था कि दरिद्रकुल में जन्म लेने वाला साधारण व्यक्ति भी अपनी साधनासे अपनेसे कभी भी अप्रसन्न नहीं होना देना चाहते थे। और न ऐसा कार्यकर कभी अपयशकी कालिमासे महान बन जायगा, समाजमें आदरणीय गिना । ही वे अपनेको कलंकित होने देना चाहते थे। जायगा । जिसकी कठोर श्रात्म-साधना और दृढ़ बे कहा करते थे कि केवल पैसा संचित करना आत्मविश्वास उसे इस योग्य बना देगा कि वह ही मेरे जीवनका ध्येय नही है। किन्तु मानवताका जिस व्यक्तिसे जो कुछ भी कह देगा वह उसी तरह से ही निष्पन्न होगा। दरिद्र धनवान बन जायेगा, सुरक्षित रखना ही मेरा कर्तव्य है। दूसरे गरीब और अमीर सभी व्यक्तियोंके साथ मेरा व्यवहार और रोगी रोग-मुक्ति पाजायगा। यह सब उसकी आत्म-श्रद्धा एवं तपश्चर्याकी साधनाका परिणाम मृदु और सुकोमल होना चाहिये। है। आज एक ऐसे ही व्यक्ति की जीवन-घटनाओं क्योंकि मानव-जीवन बार-बार नहीं मिलता। पर प्रकाश डालना ही मेरे इस लेखका प्रमुख इसलिये अपने जीवन में ठगाई या धोखा देने जैसी विषय है। बुरी आदतें न पानी चाहिये। जहां तक भी बन बाबा लालमनदासजी का जन्म मेरठ शहरमें सके सदा सत्यका व्यवहार करते हुए इस जीवनको संवत् ११२० या २१ में हुआ था । श्रापकी जाति यापन करना ही अपना एक मात्र लक्ष्य है। जब अग्रवाल थी । घर आथिक दशामें साधारण आप मन्दिरजीमें जाते, तब दर्शन, सामायिक और था। आपका एक छोटा भाई और भी था जिसका स्वाध्याय अवश्य करत थे, तब उनके विचारोंकी नाम ईश्वरी-प्रसाद था, जो कुछ ही वर्ष हुए दिवंगत। पवित्रता और भी बढ़ जाती थी। और कभी कभी हुए हैं । घरकी आर्थिक स्थिति साधारण होनेके उनकी विचार-धारा बड़ी ही उग्र हो उठती थी, पर कारण आपकी शिक्षा-दीक्षा विशेष न हा सकी; ग्रह कार्य-संचालनकी हल्की-सी बाधा कभी कभी परन्तु अपनी आजीविकाके निर्वाह-हेतु जो कुछ भी उन्हें अपने पथसे विचलित भी कर देती थी। फिर थोड़ा सा ज्ञान प्राप्त किया था, उससे ही वे अपना भी वह सोचते जीवन उन्हींका सार्थक है, जिन्होंने सब कार्य निष्पन्न करते थे। शिक्षा अल्प होने पर अपने जीवनका कुछ भाग अपनी आत्म-साधनामें भी दृष्टि में विवेक एवं विचारकी कुछ झलक अवश्य व्यतीत किया है। बिना आत्म-साधनाके जीवन में थी । यद्यपि गृहस्थ जीवन साधारण था, फिर भी आदर्शता नहीं आ सकती और न स्वोपकारके साथ जावनमें उनके संस्कार धार्मिक थे। जिनेन्द्रकी परोपकार ही बन सकता है। जीवनमें सचाई और भक्ति और श्रद्धा थी । हृदयमें सचाई और पापसे ईमानदारीका होना बहुत जरूरी है। उसके विना घृणा एवं भय था. किन्तु मनमें पवित्रताका सचार जीवन नीरस रहता है। अनुदारता नीरसताकी था. और यह कसक भी थी कि कोई भी व्यक्ति साथिन है। अतः जीवनको सरस बनाने के लिये मेरी दूकानकी वस्तुसे दुःखी और ठगाफर न जाय। उदारताकी भी आवश्यकता है। आचार और आप आजीविकाके लिये हलवाईकी दुकान करते विचारोंसे ही जीवन बनता है । फिर मैं जिस कुलमें थे, पर दुकानमें इस बातकी सावधानी खास तौरसे उत्पन्न हुआ हूँ उसकी मर्यादाकी रक्षाके लिये रखते थे कि कभी किसी अपवित्र वस्तुसे दुकानकी जीवनमें धार्मिकताका अंश आना जरूरी है। इस चीजोंका सम्पर्क न होजाय। और खाने-पीने तरह आप अपना विचार-धाराके साथ जीवन वालोंको अपवित्र पदार्थ न खाना पड़े। अतः वे यापन किया करते थे।
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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