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________________ किरण ३-४] आचार्यद्वयका संन्यास और उनका स्मारक वाले हैं। अगर पाप-पुण्य दोनों छोड़ दिये, तो तीसरी शुद्ध कल्याण हो जायगा कभी नहीं। ये देवी-देवता तुम्हारी चीज़ रह जायेगी अपनी प्रामा। भकिसे प्रसन्न भी हो जायें, तो क्या देंगे। वही जो उनके xxx पाप कहें कि हमारे अन्दर यह शक्ति नहीं कि पास है। समझे वही संसारमें सुधाने वाली मोग-सम्पदा पाप पुण्य दोनोंको छोड़ दें। कैसे छोड़ दें। इसके लिये देंगे। जिसमें मगन हो करके तुम फिर संसार समुद्र में इबोगे अभ्यास करना होगा। पापोंको कम करने के लिए पहले पुण्य और फिर चतुर्गतिमें परिभ्रमण कर अनन्तकाल तक दुःख करना पड़ेगा जब पाप दूर हो जाय, तो फिर धीरे-धीरे उठाते फिरोगे!" तो फिर क्या करना चाहिये । पदमावती पुण्य भी छोड दो। इस तरह पाप-पुण्य दोनोंको छोड़ कर चक्रेश्वरी प्रादिसरागी देवोंकी पूजा भक्कि छोड़ कर एकमात्र शुद्ध हो जाओगे, मुक्त हो जानोगे। वीतराग देवकी ही पूजा भक्ति करना चाहिये । इसीसे तुम्हारे ( २.१७ के प्रवचनसे) भीतर बीतरागता जागेगी और फिर तुम भी एक दिन वीतराग बन कर जगत् पूज्य बन जानोगे। बोलो जगत्आ० नमिसागरका स्मारक क्या हो ? पूजक बने रहना अच्छा है, या जगत्पूज्य बनना प्राचार्यश्रीका स्मारक क्या हो, इसका निर्णय आप लोग एक स्वरसे बोल उठे-'बोलो मा० नमिसागर लोग उनके प्रवचनको पढ़ कर ही कीजिये। महाराजकी जय ।' सन् १९१७ की बात है श्रा० नमिसागरजी और प्रा. प्राचार्य महाराजने अपना भाषण जारी रखते हुये कहा सूर्यसागरजीका चतुर्मास दिल्ली में हो रहा थ और मैं उन अरे, तुम लोगोंने वीतरागको सराग बनानेके लिए चंवरदिनों पु. पूर्णसागरजीके पास था। धर्म पुराके नये मन्दिरमें छत्रको ही सोने-चांदीका नहीं बनाया, किन्तु स्वयं वीतरागउक्त आचार्यद्वयके भाषणके कभी पहले और कभी पीछे मेरे को ही सोने-चांदीका बना डाला। भगवान् क्या सोने-चांदीके भी भाषण लगातार हो रहे थे। एक दिनकी बात है दैनिक थे।नहीं, उनका भी पार्थिव शरीर उन्हीं पुदुगल-परमाणुपत्रोंमें यह समाचार पाया कि दक्षिणके अमुक प्रान्तमें से बना था, जिससे कि तुम्हारा-हमारा | भगवान् सोनेकम्यूनिष्टोंने अमुक उपद्रव कर दिया है और अमुक धर्म- चांदीके नहीं थे उनके शरीरका रंग सोने-चांदी जैसा था। संस्थानको सम्पत्ति लूट ली है। प्रा. नमिसागरजी कभी- और देखो, तुम कहोगे कि हमने तो भनिमें पाकर सैकड़ों कभी हिन्दीका दैनिक पत्र देखा करते थे । उक्त समाचारको हजारों रुपये लगा कर जो ये चांदी-सोनेके भगवान् बनाये पढ़ कर उनके मानस पर बहुत बाघात सा पहुँचा और वे हैं, सो कोई चुगन ले जाय, इसके लिए तुम लोगोंने इन्हें प्रवचन करते हुए अत्यन्त द्रवित होकर भाववेशमें कहने तालोंमें बन्द कर दिया, तिजोड़ियों में बन्द कर दिया। जानते लगे-'प्रय दिल्ली वाले जैनियो तुम कहाँ जा रहे हो? हो यह कितना बढ़ा पाप है? कौन सा पाप है। अरे, क्या कर रहे हो?' मैं सुन करके चौंका - आज महाराज भगवान्को तालोंमें बन्द करनेसे दर्शनावरणीय कर्म बन्धवा क्या कह रहे हैं कनड़ी भाषी होनेके कारण वे शुद्ध हिन्दी- है-दर्शनावरणीय कर्म । जिसके कारण तुम्हें कभी प्रारममें अपना भाव व्यक नहीं कर पाते थे और साधारण जनता दर्शन नहीं हो सकेगा। जानने हो, पुराने कालमें मन्दिरों पर को, या मुझे भी प्रायः उनकी बोली सहसा समझमें नहीं ताले नहीं लगा करते थे। हमारे दक्षिणमें आजभी अनेकों पाती थी। अतएव में अत्यन्त सावधान होकर उनका भाषण मन्दिरों पर ताले नहीं लगते हैं किवाद नहीं लगते हैं, कि सुनने लगा। महाराज लोगोंको उत्सुक वदन देख कर बोले जिमसे सब कोई सब काल उनका निर्वाध दर्शन कर सके। 'क्या समझे और फिर अपना अभिप्राय स्पष्ट करते हुए मन्दिरों पर ताले लगानेसे भत्रको दर्शन करनेमें अन्तराय कहने लगे-अरे, वीतरागको सराग बना र तुम लोग कहां होता है और उससे ताला लगाने वालेके भारी पाप बन्ध होता जा रहे हो १ स्वर्गमें या नर्कमेंजानते हो-वीतरागको है। तुम कहोगे-महाराज हम तो विसीको दर्शनसे रोकसराग बनानेमें कौन सा पाप होता है !!! बताऊँ ? सुनो- नेके लिए ताला नहीं लगाते हैं। हम तो देव और देवदव्यमिथ्यात्व पाप होता है । तुम लोग वीतरागके मन्दिरमें सरागी की रक्षा करनेके लिये ताला लगाते हैं। तो क्या ऐसा कहनेसे देवी-देवताओंकी स्थापना कर उनकी पूजा-भक्ति करने लगे तुम पापसे बच जानोगे अरे तुम्हारे भाव चाहे कुछ हों, पर हो? यह सब क्या है ? मिथ्यात्व है। इनके पूजनेसे तुम्हारा किया जो उलटी कर रहे हो, दूसरों के दर्शनमें अन्तराय बनते
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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