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________________ वर्ष १४ ] कसाय पाहुड और गुणधराचाय समर्थ थे। विद्वान और तपस्वी थे । उन्होंने युगप्रति- उनके बाद माघनन्दी और धरसेनाचार्य का पट्टक्रमणके समय विविध स्थानोंसे समागत साधु-संतों काल क्रमशः २१ और १६ वर्ष उद्घोपित किया है। से, जो उक्त सम्मेलनमें भाग लेनेके लिये ससंघ कसाय पाहडकी प्राचीनता आये हुए थे आचार्य-प्रवरने पूछा कि सकल- इससे स्पष्ट है कि आचार्य गुणधर अहबली संच आ गया, तब समागत साधुओंने उत्तर दिया माघनन्दी और धरसेनाचार्यसे पृववर्ती हैं, कितने कि हम सब अपने-अपने संघसहित आ गये हैं। पूर्ववर्ती हैं यह अभी विचारणीय है। इससे आचार्य अहंदुबलीको यह निश्चय हो गया दूसरे यह जान लेना भी आवश्यक है कि धरकि अब साधुगण संघकी एकताको छोड़कर विविध सेनाचार्य द्वारा पढ़ाये गए पुप्पदंत-भूतबली आचार्यों सघों और गण-गच्छोंमें विभक्त हो जावेंगे। अत द्वारा विरचित पटखण्डागम नामक आगम ग्रन्थएव उन्होंने उन साधुओं में से किन्हींको 'नन्दि' सज्ञा में उपशम क्षायिक सम्यक्त्व उत्पत्ति के जो सूत्र दिये किन्हींको देव' सज्ञा, और जो शाल्मलीद्रममूलसे हैं उन पर कसायपाइडकी निम्न दो गाथाओंका आये हुए थे उनमेंसे किन्हींको 'गुणधर' संज्ञा और स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है और इससे भी किन्हींको 'गुप्त' संज्ञासे विभूषित किया हैं। गुणधराचार्यका समय पूर्ववर्ती सिद्ध होता है। ___ इससे स्पष्ट है कि प्राचार्य अर्हवली से पहले दसणमोइस्मुवसामगो दु चदुमु वि गदोसु बोद्धब्बो। क्षपणक जैन श्रमणसंघमें किसी तरहका कोई पचिदियो य सपणो णियमा सो होइ पज्जत्तो ॥ १४ ॥ संघ-भेद न था; किन्तु युग-प्रति क्रमणके समय-से -सायपाहुड ही संघ-भेद शुरु हुआ। और उस समय अर्हद्- "उवसातो कम्हि उवमामेदि ? चदुसु वि गदीसु बली जैसे बहुश्रुत आचार्योंके हृदयों में गुणधरा- उक्साभेदि । चदुसुवि गदीसु उवसातो पंचिंदिएम चार्य के प्रति बहुमान मौजूद था। यही कारण है कि उवसामेदि, णो एइदिय-विगलिंदिपसु । पंचि दिएसु उन्होंने 'गुणधर' संज्ञा के द्वारा उनके प्रति केवल उवसातो सण्णीसु-उवसामेदि, यो असरणी । सएणोसु बहुमान ही प्रदर्शित नहीं किया: किन्त उनके अन्वय उपसातो गब्भो वातिएमु उवसामेदि, यो सम्मुच्छिमेसु । का उज्जीवित करने का प्रयत्न किया है। अतः गभोवक्कतिएम उवतातो पज्जत्तएमु उवसामे द, यो 'गुणधर' यह संज्ञा आचार्य गुणधरके अन्वय की अपज्जत्तासु । पज्जत्तरसु उवसामें तो संखेज्ज वस्साउगेसु वि सूचक है। पर उस समयके साधु-सन्तोंके हृदयों में से उवसामेदि, असंखेज्जवस्ताउगेसु वि। गुणधराचार्य की गुरु-परम्परा विस्मृत हो चुकी थी, -पखंडागम. सभ्मत्तचूलि. पु.६, फिर भी गुणधराचार्य के महान व्यक्तित्व की छाप दमण मोहाबवणा पटुवगो कम्मभूमि जादो दु। तात्कालिक श्रमण-संघके हृदय-पटल पर अंकित थी। णियमा मणुपगदीए णिवगो चावि सव्वन्थ ।। ११० प्राकृत पट्टावली के अनुसार अहंदुबलीका यह दमणमोहणीयं कम्म खवेदुमाढवेतो कम्हि भादसमय वीर निर्वाण संवन ५६५ (वि. संवन ५) है। वेदि ? अड्ढाइज्जेमु दीवममुहेमु परणारस कम्मभूमीसु और उनका पट्टकाल २८ वर्ष बतलाया गया है जम्हि जिण। केवली तित्थयरा तम्हि पाढवेदि ॥१२॥ णि?ये शाल्मलोमहादममूलागतयोऽभ्युपगतास्तेपु । वो पुण चदुमु वि गदीमु णि?वेदि ||१३|| पटवण्डागम, सम्म चू० पु.६ कांश्चिद् गुणधरसंज्ञानकाश्चिद् गुप्ताहयानकरोत् ।। -इन्द्रनन्दि श्रुतावतार ___चूकि गुणधराचार्य पांचवं पूर्व-गत पेज्ज पंचसये पण पट्टे अतिम-जिन-समय-जादेसु । दोस पाहडके ज्ञाता थे, अतः उनकी यह रचना उवण्णा पंच जणा इयंगधारी मणेयवा ॥ सहा विक्रम संवत् से कमसे कम दो सी वर्षे पूर्व अहिवल्लि य माघणंदिय धरसेण पुफ्फ यंत भूयबली। की तो होनी ही चाहिये। अतः यह ग्रन्थ विक्रम पूर्व अडवीसे इगिवीसे उगणीसे तीस वीप वास पुणो १६ द्वितीय शताब्दी के लगभगका होना चाहिये। यह प्राकृत पहावली १५ उस समयकी पुरातन रचना है जब ग्रन्थ रचने का
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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