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अनेकान्त
[वर्ष १४ हृदयमें जैनोंके प्रति ईषकी भावना प्रज्वलित हो चुकी थी सिनी महिलाए इनको देखकर लज्जित नहीं होती । इन क्योंकि आगे चलकर वह फिर निन्दनीय शब्दोंमें लिखने जैसे दुर्जनोंके प्रति यदि भक्ति रखते हैं, तो कहना पड़ेगा हैं-'इन सब निर्लज्ल, नग्न, मांस-भक्षणके अभ्यास से भैसे कि हमने अयोग्य पान को भक्ति समर्पित की है। यह वैसा की भांति स्थूलकाय हुए सन्यासियोंको देखने ही सुमागधा नियम है ? जो व्यक्ति भोजनका त्याग नहीं कर सकता, तुरन्त वस्त्रसे अपने मुखको आच्छादित कर विमर्शभावसे वह वस्त्रका त्याग कैसे करता है। इन पशुओंकी जिस देश लौट गई...'
में पूजा होती है वह देश परित्याज्य है।' ऐसा मालूम होता है कि वृन्दावस्थाके कारण श्री इस विषयमें तो इतना ही कहना उचित है कि संतराम सन्तरामकी बुद्धिमें विकार उत्पन्न हो गया है । क्योंकि जैसे लेखकों को जो अन्य सम्प्रदायके साधुओंके प्रति श्रृंगहीन उन्होंने जैन साधुओंके लिये निर्लज और मांस-भक्षणके
पशुओं जैसे विशेषणोंका प्रयोग करते हैं। अपनी विषैली अभ्यासी आदि शब्दोंका प्रयोग किया है। इस विषयों में
रचनात्रोंसे हिन्दी साहित्यको गंदा करनेसे अच्छा तो यह उनसे पूछता हूँ कि यदि निर्लजताका उदाहरण देखना है
है कि या तो वह किसी धर्म विशेषके प्रचारक बनकर स्टेज तो शैव मन्दिरों और महन्त तथा पुजारियोंकी रास-लीलामें
पर जाकर अपनी बेसुरी आवाज सुनायें या अवंतिका जैसी देखो। जो साधू संसार छोड़ चुके हैं वे यदि वस्त्रका त्याग
पत्रिका का प्राश्रय छोड़कर किसी बाजारू पत्रिकामें ऐसे लेख करते हैं तो क्या बुरा है। क्या हिन्दू धर्ममें बाबाजीकी
लिखे । मेरी समझमें नहीं पाता कि किस प्रकार एक विद्वान् लंगोटी वाली कहावत प्रसिद्ध नहीं है ? जब लंगोटीको
लेखक दूसरे धर्मको बिना जाने इतनी निम्न भाषामें उसका चूहोंसे बचानेके लिये बाबाजीको सारी गृहस्थी पालनी पड़ी
अपमान कर सकता है । उन्हें जानना चाहिए कि:थी। लेखकके मार्ग-दर्शनके लिये में यहां पर जैन मुनियोंक
पृथ्वीशिलातृणमये शयनं प्रकुर्वन विषयमें दो संस्कृत श्लोकोंका वर्णन करता हूँ: -
यः स्वात्मसौख्यपटिते स्वपदे सदा व ॥ तनोविरको झुपवासपूर्व लोचं द्वितीयादिकमास एव ।
जाग्रंस्तथा सुखकरेऽखिलविश्वकार्ये ।
गुप्तोऽस्ति शान्तिनिलये स तिः प्रपूज्यः ॥ कुर्वन्सदा याचनदोषमुक्तस्तिष्ठेन्निजे यः स च वद्य साधुः ॥
-जो मुनिराज पृथ्वीपर, वा घास फूपकी शय्या पर
शयन करते है आमाको मोक्षरूप सुख देने वाले समस्त -जो मुनिराज याचनादोषसे रहित होकर और शरीरसे
कार्यों में सदाकाल जगते हुए और शांतिक परमस्थान ऐसे विरक्त होकर उपवासपूर्वक दुसरे तीसरे वा चौथे महीने में
अपने श्रात्मामें लीन हुए जो मुनिराज अपने प्रात्माके अनंत सदा केशलौंच करते हैं और सदा काल अपने आत्मामें लीन रहते हैं ऐसे साधु वंदनीय साधु कहलाते हैं ।
सुग्वस्वरूप शुद्ध श्रा-मामें सदा काल शयन करते रहते हैं
ऐसे वे मुनिराज सदा काल पूज्य माने जाते हैं। प्रादाय वस्त्ररहित जिनशुद्धलिगं
यावदलं मम तनौ प्रविहाय लोभ कुर्वन रति निजपदे वसुखे सदा वः।
स्थित्वा करोमि निजपाणिपुटेऽल्पभुक्ति। लोके शशोव विमलश्चलतोह शान्त्यै ।
स्थानत्रिकेऽतिविमले निजशुद्धभावं साधुनमामि सकलेन्द्रियान्न विकारम् ॥ -जो मुनिराज सब प्रकारक वस्त्रोंका न्यागकर भगवान्
ध्यायन् स एष कथितः स्थितमुक्तसाधुः॥ जिनेन्द्र देवके शुद्ध, लिंगको धारण कर अपनी प्रामामें वा
-मेरे शरीरमें जबतक बल है तब तक मैं लोभको पात्मजन्य सुखमें लीन रहते हैं और समस्त मंमारमें शांति छोड़कर तथा खड़े होकर अपने करपात्रमें थोड़ा सा भोजन स्थापना करते हुए चन्द्रमाके समान निर्मल श्रवस्था धारण
करूंगा, तथा वह भी तीनों स्थानों की शुद्धि होने पर कर विहार करते हैं ऐसे समस्त इन्द्रियोंके विकारों रहित उन
करूँगा और उस समय भी अपने प्रान्माके शुद्ध स्वरूपका साधुओं को मैं नमस्कार करता हूँ।
चिंतन करता रहूंगा । इस प्रकार प्रतिज्ञा करनेवाले साधुओं के आगे चलकर सन्तराम लिखते हैं-'यदि ये लोग साधु
स्थितिभोजन नामका उत्तम गुण होता है। हैं तो फिर असाधु कौन है ? ये सकल शृंगहीन पशु अपने दृग्बोधवृत्तममतादिविवर्द्धनार्थ । हमें भोजन करते हैं। ये मनुष्य नहीं है। इसलिए पुरवा- कृर्वन् यथोक्तसमये च किलैकमुक्ति ।