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अनेकान्त
[वर्ष १४
अत्रान्तरंगहेतुर्यद्यपि भावः कवेविशुद्धतरः। रखनेवाले अच्छे विद्वान् जान पड़ते हैं, और उनके बाद ग्रन्थहेतोस्तथापि हेतुः साध्वी सर्वोपकारिणी बुद्धि : ॥५॥ के तैयार अंशको देव-सुनकर बहुतसे सज्जनोंकी एषणा सर्वोऽपि जीवलोकः श्रोतकामो वर्ष हि सुगमोक्त्या। जागृत हो उठी हो। और उन्होंने कविजीको ग्रन्थमें और विज्ञप्तौ तस्य कृते तत्रायमुपक्रमः श्रेयान् । ६॥' भी अनेक धर्म-विषयोंको शामिल करके उसे विशाल रूप
इन चारों पद्योंकी प्रस्तुत ग्रन्थ-प्रतिके इन्हीं नम्बरवाले देनेकी प्रेरणा की हो। उसीके फलस्वरूप कवि राजमल्लजीपद्योंके साथ तुलना करने पर मालूम होता है कि प्रथम को ग्रन्थके इन चारों पद्योंमें उक्त फेर-फार करना पड़ा हो पद्यमें 'महावीरं' और 'तं पदोंको छोड़कर शेष सब पद और छठे पद्यमें जहां पहले यह सूचना की गई थी कि बदल कर रक्खे गये हैं। चौथा पद्य भी पंच गुरुओंको 'ऋषभदास सद्धर्मको सुगमोकियोंके द्वारा सुनना चाहता है, नमस्कार तथा 'पुनः' और 'शास्त्र' जैसे दो एक शब्दोंको उसीके लिए ग्रन्थ-रचनाका यह सब प्रयत्न है, वहां यह छोड़कर प्रायः सारा ही बदलकर रक्खा गया है। श्वें पद्यके सूचित करना पड़ा है कि 'सारा ही जीवलोक धर्मको सुगमोतीन चरण दोनोंमें समान हैं केवल चौथा चरण बदला नियोंके द्वारा मुनना चाहता है, उसीके लिए ग्रन्थ-रचनाका हुआ है। छठे पद्यका प्रथम चरण बदला हुआ है और शेष यह सब प्रयन्न है। साथ ही चौथे पद्यमें ग्रन्थका नाम तीन चरण ज्यों के त्यों पाये जाते हैं।
'ऋषभदासोल्लास' के स्थान पर 'पंचाध्यायी' घोषित करना दोनों प्रतियोंकी इस पारस्परिक तुलना एवं पाठभेदों पड़ा हो और उसे प्रथम पद्यमें 'ग्रन्थराज' विशेषण भी देना परसे यह स्पष्ट जाना जाता है कि ग्रन्थका प्रारम्भ साहू पड़ा हो । कुछ भी हो, इसमें पन्देह नहीं कि प्रस्तुत ग्रन्थटोडरक सुपुत्र ऋषभदासकी प्रेरणाको पाकर हुश्रा है, वही रचनाका सूत्र-पात उन साहू श्री ऋषभदासजीकी प्रेरणाको ग्रन्थर-चनामें अन्तरंग हेतुका हेतु बना है, उसीके नाम पर पाकर हुआ है जो साहू टोडरके सुपुत्र थे और जिनका नामोल्लेख प्रथमतः इस ग्रन्थका नाम 'ऋषभदासोल्लाम' रक्खा गया जम्यूम्बामिचरितकी प्रशस्तिमें भी पाया जाता है। प्रशिस्तमें है और सम्भवतः ७६८ पद्योंका यह प्रथम प्रकरण उसीको साहू टाडरका व
सही साहू टोडरकी वंशपरम्पराका वर्णन है, उन्हें गर्गगोत्री अग्रवाल लिखकर दिया गया है । बादको किसी कारण-कलाप अथवा
तथा भटानिया कोलका निवासी बतलाया है, उनकी भार्याका परिस्थितियांक वश ग्रन्थको और भी विशाल रूप देनेका नाम 'कसू मा प्रकट किया है जो उन साह ऋषभदाय विचार उन्पन्न हुआ है, इसीसे मुद्रित पाठवाली ग्रन्थप्रतियों में तथा उनक दा लघु नाता।
mins तथा उनके दो लघु भ्राता मोहनदास , और रूपमांउसे 'ग्रंथराज' सूचित किया गया है और उसका नामकरण गदकी माता थी। इससे ग्रन्थ-रचनामें प्राय प्रेरक साह भी 'पंचाध्यायी' किया गया है। साथ ही अन्तरंग हेतुक ऋषभदासजोका कितना ही परिचय मिल जाता है। हेनुरूपमें श्री ऋपभदासकी जगह अपनी ही साध्वी सर्वोप- पंचाध्यायीके निर्माणको ऐसी स्थितिमें उसकी दूसरी कारणी बुद्धिको स्थान दिया गया है । हो सकता है कि हस्तलिखित प्रतियोंको भी टटोला जाना चाहिए, सम्भव है इस बीचमें ऋषभदासजीका देहावसान हो गया हो, जो कि उनमेंसे किसीमें और भी कोई विशेष बात जाननेको मिल ऐसे गृढ तथा गम्भीर तत्वज्ञानके विषयमें रुचि एवं उल्लास जाय ।
ता० १३.११-१९५६ अनेकान्त के उपहार में समयसार टीका अनेकान्त के प्रेमी पाठकों को यह जानकर हर्ष होगा कि हमें बाबू जिनेन्द्रकुमार जी मंत्री निजानन्द ग्रन्थमाला सहारनपुर की ओरसे स्वामो कर्मानन्द जी कृत समयसार टोका की १५० प्रतियां अनेकान्त के उन ग्राहकों को देने के लिये प्राप्त हुई हैं जो ग्राहक महानुभाव अपना वार्षिक चन्दा ६ रुपया और उपहारी पोष्टेज १) रु० कुल ७) रुपया मनी आर्डर से सबसे पहले भेज देंगे उन्हें समयसार की टीका रजिष्टरी से भेज दी जावेगी। प्रतियाँ थोड़ी हैं इस लिये ग्राहक महानुभावों की जन्दी करनी चाहिये। मैनेजर अनेकान्त, वीर सेवा-मन्दिर २१ परियागंज दिल्ली