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________________ २६२] अनेकान्त [वर्ष १४ उद्धार कैसे होगा और मैं अपने निज स्वरूपको कैसे पा वाकबाणोंसे कुमसिका हृदय-कुसुम छिन्न-भिन्न हो गया और सकूँगा? वह कुपित होकर अपने पिताके पास चली गई । और सुमति-हे नाथ ! आप तो अपना उद्धार करनेमें अपने पितासे अपने पानेका कारण बतलाया। मोहराजने स्वयं समर्थ हैं, जो व्यक्ति अपने स्वरूपको भूल जाता है वह पुत्रीकी बात सुनकर अपनी प्यारी बेटीको समझाते हुए सहज ही पराधीन हो जाता है । ज तक हम अपनी यथार्थ कहा-बेटी, चिन्ता मत करो, मेरे रहते हुए संसारमें ऐसा परिस्थितिको नहीं समझते हैं, तब तक ही दूसरा हमें पराधीन कौन सुभट है जो तेरा परित्याग कर सके ? में तुम्हारे पति कर हम पर शासन किया करता है और हमारा यद्वा-तद्वा की बुद्धिको अभी ठिकाने पर लाता हूँ, अभी अपने सरदारों शोपण करता है। किन्तु जब हमें अपने अधिकार और को बुलाकर चेतनके पास भेजता हूँ, जब तक वह सुमतिको कर्तव्योंका यथार्थ परिज्ञान हो जाता है तब उस शोषण निकालकर तुमको अपने घरमें स्थान नहीं देगा, तब तक करनेवाले शासनका भी अन्त हो जाता है। इसके लिये भेद- मैं चुप होने का नहीं। मेरी और मेरे योद्धाओंकी शक्ति विज्ञान और विवेक ही अमोघ अस्त्र हैं, उन्हींसे श्राप रण- अपार है, वह उसे क्षणमात्रमें अपने श्राधीन कर लेगी। नेत्र में युद्ध करनेके लिये समर्थ हो सकते हैं और शत्रुको इस तरह बेटी कुमतिको समझा-बुझाकर मोहने अपने चतुर पराम्न कर विजय प्राप्त कर सकते हैं। जैसे मोहनधूलिके दूत काम कुमारको बुलाकर श्रादेश किया कि तुम चंतन सम्बन्ध अान्मा अपनेको भूल जाता है, परको निज मानने राजासे जाकर कहो कि तुमने अपनी स्त्रीका परित्याग लगता है उसी प्रकार याप कुमतिके कुम्पंगसे अपने स्वरूपको क्यों कर दिया है ? या तो हाथ जोडकर क्षमा याचना करो, भूल गए हैं । अतएव पदच्युत हैं । और इधर-उधर भ्रमण अन्यथा युद्धके लिये तैय्यार हो जाओ। कर रहे हैं। अब सावधान हो समर-भूमिमें आइये, अपनी दूत कर्ममें निपुण काम-कुमारने मोहराजाका सन्देश दृढ़ता और विवेकको साथ रखते हुए कर्तव्य-पथसे विचलित चेतनराजासे कह दिया । और बहुत कुछ वाद-विवाद के न होइये, आपकी विजय निश्चित है । सुमतिकी इस बात- अनन्तर चेतन भी मोहसं युद्ध करनेके लिये तैयार होगया । को सुनकर चेतनरायने मौन ले लिया। दूतने वापिस जाकर राजाचंतनकी वे सब बातें मोहसे ___इतनेमें महमा कुमति श्रागई और सुमतिसे बोली-री कह सुनाई, और निवेदन किया कि यह युद्धक लिय नैयार दुष्टा तू क्या बक-धक कर रही है, तू कुल-कलंकिनी कौन है। तब मोहने अपने वार सुभटोंको चेतनराजाको पकड़नेके है, मेरे सामने बोलनेका तेरा इतना साहस, तू नहीं जानती लिये आमन्त्रित किया। है कि में लोक-प्रसिद्ध सुभट मोहकी प्यारी पुत्री हूँ। मुझे मोहके राग-द्वेष दोनों महा मभट वीर मन्त्रियोंने जो इस बातका अभिमान है कि मैंने अपने प्रभावसे अनेक वीर मोहकी फौजक सरदार हैं । अनेक नरहसे परामर्शकर चेतनसुभटोंको परास्त किया है-हराया है। तू क्यों इतनी बढ़ को अपने प्राधीन करनेका उपाय बतलाया । ज्ञानावरणने बदकर बातें कर रही है, यहांसे क्यों नहीं चली जाती? मन्त्रियोंको प्रसन्न करने हुए कहा कि-'प्रभो ! मेरे पास चेतनने हँसकर कहा कि अब तुम पर मेरा स्नेह नहीं पांच प्रकारकी सेना है । एक चतनकी तो बात क्या मने है। तुम क्यों इस प्रकारकी बातें करके परस्प में झगड़नेका सारे संमारको अपने श्राधीन बना लिया है, आप जिस तरह प्रयत्न कर रही हो और अहंकारके नशे में चूर हो समता कहें मैं चेतनरायको बन्दी बनाकर श्रापक मामने ला सकता और शिष्टताको गमा रही हो। हूँ। मेरी शक्ति अभार है, जहाँ जहाँ श्रापको प्रज्ञानके दर्श: सुमति-इतने सुमति बोली-आपने खूब कहा, मैं होते हैं वह सब मेरी ही कृपाका परिणाम है । मेरी निका और यहांसे चली जाऊँ, और तुम अकेली ही क्रीड़ा करो, कोई मुकाबिला नहीं कर सकता। और चेतनरायको परमें लुभाये रखनेका प्रयत्न करती रहो, उसी समय दर्शनावरण अपनी डींग हांकते हुए बोलाजिससे वह अपनेको न जान सके । न-न यह कभी नहीं हो देव ! मैं अपने विषयमें अधिक प्रशंसा क्या करूँ । मैंने सकता । अब तेरी वह मोह माया अपना कार्य करने में समर्थ चेतनरायकी बहुत बुरी अवस्था कर रक्खी है, इतना ही नहीं हो सकेगी, अब मेरे रहते हुए तेरा अस्तित्व भी संभव नहीं किन्तु मेरे कारण मंमारके सभी जीव शान्धे जैसे हो गई है। तू दुराचारिणी है, हट जा यहां से। सुमतिके इन रहे हैं वे प्रारम-दर्शन करनेमें सर्वथा असमर्थ है, यह सब
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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