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________________ किरण ११-१२) हिन्दीके नये साहित्यकी खोज [३३५ दिशा तस तणइ अंववर तरणि, बारहदेस गारत गुर। इति बावन अखिर बावनी समाप्ता । इति हूंगरसाह तस उवरि उपना है रतन डूगरसी पगर सुयण ॥३॥ बीजत बावनी । बावनीकी भाषा शुद्ध हिन्दी नहीं है, तथा उस पर जयपुरके ठोलियोंके मन्दिरके जिस गुटके में यह बावनी राजस्थानी भापाका अधिक प्रभाव है। रचनाके मुख्य विषय संग्रहीत है वह बहुत ही अशुद्ध लिखी हुई है तथा लिपि दयाधर्म, पुरुषार्थ, शीलधर्म, दान एवं त्यागधर्म, विनय- भी स्पष्ट नहीं है। शीलता आदि हैं। ___संसारमें धन ही दुर्लभ वस्तु है, ऐसा कविका मत है। ७. दस्तूरमालिकाऔर इसलिये धनका अधिक संचय किया जाना चाहिये। दस्तूरमालिका कविवर वंशीधरने संवत् १११ में समाप्त की थी। कवि शकिपुरके निवासी थे। कविने रचनाके धनके अभावमें राजा हरिश्चन्द्र आदिको क्या दशा हो गई प्रारम्भमें बादशाह आलम, राजा छत्रसाल, एवं शक्निसिंहके थी, इसे सभी व्यक्ति जानते हैं। कविके विचारोंको पदिये नामोल्लेख करके उनके शासनकी प्रशंसा की है। धन संचहु धनवंत, धन संसारिहि दुलहा। पातसाह आलम अमिल सालिम प्रबल प्रताप । धन बिणि ताडित महिय खुध्याखिति मंडल ॥ आलम मैं जाको सबै घर घर जापत जाप ॥५॥ धन विण सति हरिचन्द राइ विकणिय दसहाल छत्रसाल भुवसालको राजत राज विसाल । सकुलीणी सयुत जणि जहाँ धन तह दीसति बहु। सकल हिन्दु उगजाल में मनी इंद दुतजाल ॥६॥ संघपति राइ डूगर कहै, धन बिण अकयथ सहु॥ ताकै अंत सोभिजै, सकतसिध बलवान । बावनीमें सभी इसी तरहके छन्द हैं। अन्तिम दो उग्रसहै नरनाह के नंद दीह दलवान ॥७॥ छन्दोंमें कविने अपना परिचय प्रादि दिया है वह पढ़नेके सहर सनतपुर राजही सुग्व समाज सब ठौर । योग्य है परम धरम सुकरम जहाँ सबै जगत सिरमौर ॥८॥ खिमा करवि सुजाण वयण सह को आधारै । संवद् सत्रास करा, पैसठ परम पुनीत । दिड पुण बुलिये वयण मेक विचार॥ करि वरननि यहि ग्रंथ को छइ चरनन कविमीत ॥ मय आपण मनि आलिकि बाध निवदितीय । दस्तूरमालिका गणितशाम्बसे सम्बन्धित रचना है श्री डूगर श्रीमालराइ, गुणराय प्रतिय ॥ अर्थशास्त्रसे भी इसका ग्वब सम्बन्ध है क्योंकि हिमाव कवि कहै पदम कर जोडि, प्रतिभणइ कंठ सरस्वती। करनेके गरु दिये हुये है। रचनाका अध्ययन करनेके दश्चात् प्रसिद्ध नाम जपिये ममन संताप खोट उनखरमुपरखिय वस्तुओं की नाप तोल एवं क्रय-विक्रय करनेकी कला सीखी संवत् पंदग्ह चालसै तीनि आगला मुदिताय । जा सकती है। मकल परिव द्वादसी वार रविधिरस मंगल । कवि कपड़ा खरीदकी विधिका वर्णन करता है। वह पूर्वपाढ नपित्र जोग हरपिण हरिपगल। कहता है कि जितने ही रुपये गज उतने ही श्रानोंका एक सुभ लगन सुभ घड़ी..... गिरह कपड़ा आवेगा, यदि गजका भाव भानों में हो तो सुभ वेला मुभ वचन पदमनभ कहि कवरै। तो उपकी फैलावटके लिये जो विधि लिखी है वह निम्न बावनी लंद डूगर मृयण बसुधा मंडलि विस्तरै ॥५३॥ प्रकार है जिते रूपैया मोल की, गज प्रत जो पट लेइ। हॅबड हरिप आणद उछाहनु म मंदिर। गिरह येक आना तिते लेख लिखारी लेइ ॥१०॥ सजन मति उलास पिसुगा भंजबि गिरिकंदरि। आना उपर होवै गज प्रति रूपिया अंक । दिन चढ़ि ज्यमु प्रताप तेज निहुँभुवण प्रगासै ।। तीन दाम पाठ अंसु बद ग्रह प्रत लिखी निसंक ॥११॥ ससि करति संसारि, ससि जेम विकासै। इसी प्रकार 'मालिका' में सुवर्ण खरीदका दस्तूर तोराके धन पुत्र लाख मुग्व संपदा कहय पदम जयवंत हुय। लिखेको दस्तूर, मोनेके बानको दस्तूर, थात खरीदको श्री डूगर बालह देय वरु जयवंतर जाइ मेरुधव ॥५४ दस्तूर, केशर खरीदनेकौ दस्तूर, मासिक वेतन बांटने
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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