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________________ १७४] अनेकान्त [वर्ष १४ ठोक निर्णय हो सकेगा । जिस किसी विद्वानको उनके समयादि दिक जय-लक्षणसे युक्त कहे गये हैं। अस्तु । विषयक कुछ परिचय प्राप्त हो तो उसे प्रकट करना चाहिए। . यह ग्रंथ अच्छा उपयोगी है और अनुवादादिके साथ हाँ, एक बात यहां प्रकट कर देनेकी है और वह यह प्रकाशित किये जाने के योग्य है। कि, जिस गुटकेसे यह ग्रन्थ उपलब्ध हुआ है उसके १२. पिंगल-चतुरशीति-रूपक अन्तिम भागमें फार्सी भाषाकी कुछ कविताएं फार्सी लिपिमें यह छन्द-विषयक ग्रन्थ भी उसी गुटकेसे उपलब्ध ही लिखाई गई हैं, उनमेंसे पहली कविता जिससे लिखाई हुआ है जिससे 'प्राकृत-छन्दकोश' मिला है और पिंगलाचार्यगई है उसने लिखते समय अपने लिखनेकी तारीख भी शाके धार पर प्राकत-भाषामें निबद्ध है। साथमें दर्ज कर दी है और जो "मवा २४ माह शबान कर्ताका नाम और रचनाकाल इसमें भी दिया हुआ नहीं सन् १६२ (हिजरी) है। इससे प्रस्तुत छन्द-ग्रन्थ गुटकेमें इस है। परन्तु यह भी एक प्राचीन कृति है और उस समयको तारीखसे कितने ही काल पहलेका लिखा हुआ है और उस रचना जान पड़ती है जबकि देश में प्राकृत-अपभ्रंशका गुटकेमें अवतरित अथवा लिपिकृत हुए उसे ४१३ वर्षसे । प्रचलन था। यह ग्रन्थ उक्त गुटकेके प्रायः प्रारम्भमें ही उपरका समय हो गया है। क्योंकि आज हिजरी सन् १३७६ छन्दकोशसे पूर्व लिखा गया है और इसलिये इसका प्रचलित है। ऐसी हालतमें यह ग्रन्थ ११५ वर्षसे पहलेका लिपिकाल भी ११३ वर्षसे पहलेका सुनिश्चित है। प्रथकी बना हुआ है, इतना तो सुनिश्चित है। परन्तु कितने वर्ग पत्र संख्या २२ और श्लोक संख्या ३०० के लगभग है। पहले इसका निर्माण हुआ यह अभी निर्णयाधीन है। इस ग्रन्धमें ४ छन्दोंके स्वरूप दिये हुए हैं और साथमें इस ग्रन्थके श्रादि-अन्तके दो-दोपद्य इस प्रकार हैं:- छन्दशास्त्र-सम्बन्धी गणादि-विषयक कुछ नियमोंका भी आजोयणट्ठियाणं सुर-नर-तिरियाण हरिस संजणणी उल्लेख है । जिन ८४ छन्दोंके इसमें रूप दिये हैं उनके सरस-सर-वरणछंदा सुमहत्था जयउ जिणवाणी ॥१ नाम निम्न प्रकार हैं:भू-चंदक्क मरुग्गणा म-भ-ज-सा सव्वाऽइ-मझतगा . साडा, २ दण्डिका, ३ गाहिनी ४ गाहा, ५ विग्गाहा, गीयाई सुकमा कुति सुसिरि कित्तिं च रोगं भयं । ६ सिहिनी, ७ उग्गाहा, गाहा, ६ खंधाणा, १० वत्थुवा, सम्गंभोऽगणि-खेसरान-य-र-ता सव्वाऽऽइ-मझतला " दोहा, १२ गंधाना, १३ उक्किन्था, १४ रोका, आऊ वृड्ढि विनास देश-गमणे कुवंति निस्संसयं ॥२ १५ लाला, १६ रंगिक्का, १७ विज्जुमाला, १८ चउपइया, x x x पहुमावती, २० स्वामाला. २१ पत्ता, २२ गीतिका, पयडेइ छंद-संखं अक्खरसंखा अणाइ एगजुया। २३ डिल्ला, २४ पद्धड़ी, २५ अडिल्ल, २६ मडिल्ल, छदाणं जोणीभो जागह पाऊण मत्ताई ॥७७। २७ वत्थु २८ वहरथु, २६ झमिल्ल, ३० गयनंदु, इय पाइय-उंदाणं कइवइ-पामाइं सुप्पसिद्धाई। ३१ पयंगम, ३२ तिमा, ३३ नाराया, ३४ दुबई ३५ पावानी, भणियाई लक्ख-लक्खण-जुआई इह छंदकोसम्मि ॥७८ ३६ वल्लरिया, ३७ चॉवर, ३८ सामाणी, ३१ धारीया, इति प्राकृतछंदकोशः समाप्तः । ४० खंजा तुगा, ४१ सिक्खा, ४३ तोटक, ४४ भुजंगइनमें पहला पद्य मंगलाचरणका है, जिसमें जिनवाणीका प्रयात, ४५ लीला, ५६ लग्गणिया, ५७ जमकाणा, जयघोष करते हुए उसे समवसरणमें एक योजन पर्यन्त स्थित ४८ फारी, ४. मोदका, .. चंदाणा, ५१ चूलिया, सुर-नर-तियंचोंको हर्षित करनेवाली लिखा है और साथ ही ५२ चारण, १३ कमला, ५४ दीपका, ५५ मोत्तिदाम, यह बतलाया है कि वह महान् अर्थको लिये हुए सरस २६ सारंगा ५७ बंधा, ५८ विज्जोहा, ५६ करहंचा ६० पंचा, स्वर-वर्ण और छन्दोंसे अलंकृत है। दूसरे पद्यमें पाठ ६१ सम्मोहा, ६२ चौरंशा, ६३ हंसा, ६४ मंधाणा, गणोंका सुप्रसिद्ध स्वरूप बतलाते हुए रचनाके आदिमें उन ६५ खंडा, ६६ खंजा ६७ हरसंखाणा, ६८ पाइक्का, गणोंको प्रयुक्त करनेका फल प्रकट किया है और साथमें उन ६६ पंका, ७० वाणी, ७१ सालूरा, ७२ रासा, ७३ ताणी, गयोंके देवतादिका भी निर्देश किया है। अन्तिम पयमें इसके पूर्व में एक पृष्ठ पर मोकार मन्त्र, एसो पंच अन्धकी समाप्तिको सूचित करते हुए यह प्रकट किया है नमोकारो, प्रज्ञान-तिमिर-ग्याप्ति और 'या कुदेन्दुकि इस छन्दकोशमें कतिपय सुप्रसिद्ध प्राकृत छन्दोंके नामा- तुषारहारधवला' नामका सरस्वतीकाम्य दिया है।
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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