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________________ किरण] विश्वशान्तिका सुगम उपाय आत्मीयताका विस्तार [२३३ प्रसारित करनेसे इन महायुद्धोंका अन्त हो सकता है। अंकित हो जाना चाहिए विश्व शांतिकी बातको एक बार अलग भी रखें, पर 'आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ।' भारतमें ही अपने भाइयों के साथ कितने अन्याय व अत्या- जीवन के प्रत्येक कार्यको करते समय इस महा वाक्यकी चार हो रहे हैं। हमारे अलगावकी भावनासे ही पाकिस्तान- ओर हमार। यह ध्यान रहे। ईश्वरको सृष्टि-कर्ता मानने का जन्म हुआ और लाखों व्यक्तियोंको अमानुषिक अत्या- वाले दर्शन जीव जगतको उस परमात्माका एक ही अंश मानते चारोंका शिकार होना पड़ा। उसे भी अलग रखकर सोचते हैं और सभी प्राणियोंमें वह एक ही ज्योति प्रकाशित हो हैं तो प्रान्तीयता, गुट-पार्टी व दलबन्दीसे हमारा कितना रही मानते हैं तब उसमेंसे किसीको कष्ट देना परमात्मानुकसान हो रहा है। इसका एकमात्र कारण आत्मीयताकी को कष्ट देना होगा। कमी ही है। आज काला बाजार, घूसखोरी आदि अनी- भारतीय मनीषी सब जीवोंको अपने समान मानकर तियोंका-बोल बाला है। इसमें भी वही अलगावकी वृत्ति ही नहीं रुके, उनकी विचार-धारा तो और भी आगे बढ़ी काम कर रही है। और सब जीवोंमें परमात्माके दर्शन करने तक पहुँच गये। यदि हम एक दूसरेसे अभिन्नताका अनुभव करने लगें एक दूसरेसे अलगावका तो प्रश्न ही कैसे उठ सकता है। तो कोई किसीको मनसा, वाचा, कर्मणा दुःख दे ही नहीं अपितु एक दूसरेके साथ मेत्री, एक दूसरेके प्रति श्रद्धा एवं सकता । क्योंकि हमारेसे भिन्न तो कोई है ही नहीं। श्रादर बुद्धिकी स्थापना होती है। उसका उनका दुःख हमारा दुःख है । इससे व्यक्ति ऐसी वर्तमानमें हमारी आत्मीयता इने गिने ब्यक्तियों तक आरमीयता व अपनेपनका भाव रखे तो विश्वकी समस्त सीमित होनेसे संकुचित है। उसे उदार भावना द्वारा विस्तृत अशान्ति विलोप हो जाय और सुख-शान्तिका सागर उमड़ कर जाति, नगर, देश यावत् राष्ट्र व विश्वके प्रत्येक प्राणीके पड़े। आखिर प्रत्येक मनुष्य जन्मा है, वह मरता अवश्य साथ प्रात्मीयता (अपनेपन का विस्तार करते जाना है है। तो फिर प्राणिमात्रको कष्ट क्यों पहचाया जाय । यही शान्तिका सच्चा प्रमोष एवं प्रशस्त मार्ग है। 'खुद शान्तिसे जीओ और प्राणिमात्रको सुखपूर्वक जीने दो, हमारे तत्त्वज्ञोंने धर्मकी व्याख्या करते हुए-लक्षण यही हमारा सनातन धर्म है । भारत का तो यह आदर्श ही बतलाते हुए-'जिससे अभ्युदय व निश्र यस प्राप्त हो, वही धर्म कहा है। अतः प्रात्मीयताका विस्तार वास्तवमें हमारा अयं निजः परो वेति गणना लघु-चेतसाम् । आत्म-स्वभाव या धर्म हो जाना चाहिये । अलगाव-भेदभावउदारचरितानां त वसधैव कदम्बकम को मिटाकर सबमें अपनेपनका अनुभव कर तदनुकूल व्यव अर्थात् ये मेरा, ये तेरा, यह भाव तो बुद्ध-वृत्तिके हार करें, तो सर्वत्र प्रानन्द हो आनन्द दृष्टिगोचर होगा। मनुष्योंका लक्षण है । उदार चरित्र व्यक्रियोंका तो समस्त उस आनन्दके सामने स्वर्गके माने जानेवाले सुख कुछ भी विश्व ही अपना कुटुम्ब है। ___ महत्त्व नहीं रखते । एक दूसरेके कप्टको अपना ही दुःख भारतीय दर्शनोंमें, विशेषतः जैनदर्शनमें तो प्रात्मीयता- समझकर दूर करें, व एक दूसरेके उत्थानको अपना उत्थान कि विस्तार मानव तक ही सीमित न रखकर पशु-पक्षी समझते हुए ईर्षाल न होकर इसमें हर्षि हों, एक दूसरोंको यावत् सूचमातिसूचम जन्तुओंके साथ भी स्थापित करते हुए ऊँचा उठानेमें हम निरन्तर प्रयत्न करते रहे, इससे अधिक उनकी हिंसाका निषेध किया गया है। अहिंसाको मूल मिति जीवनकी सफलता और कुछ हो नहीं सकती। इसी भावना पर खड़ी है कि किसी दूसरेके बुरे व्यवहारसे भारतीय प्रादर्श यही रहा है कि समस्त विश्वके कल्याणमुझे दुःख होता है वैसा ही व्यवहार मैं दूसरों के साथ करता की भावनाको प्रतिदिन चिन्तन करें और उसके अनुरूप तो उसे भी कष्ट हुये बिना नहीं रहेगा। अतः उसे कष्ट अपने जीवनको ढालनेका प्रयत्न करें। प्राणिमात्रकी सेवामें देना अपने लिये कष्ट मोल लेना है। जो मुझे अप्रिय है अमृतत्व हो जाना, दुःखियोंका दुःख मिटाना, गिरेको ऊँचा वैसा व्यवहार दूसरोंके साथ भी नहीं किया जाय । वास्तवमें उठाना और सबके साथ प्रेमभाव व मैत्रीका व्यवहार करना वह भी मेरा अपना ही रूप है, अतः प्रात्मीय है। यही सच्ची अहिंसा है जिसे कि जैन दर्शनने अधिक महत्त्व भारतीय महर्षियोंका यह पादर्श वाक्य हमारे हृदयमें दिया है।
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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