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________________ वर्ण १४ . ] जैनग्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह [ ६६ तइयड वले भवि वि जाखिमह अप्पा किं भगमि हरी कप्पयरो सायरो-सुरसेलो । बंधव सुयहिं सम्माशिज्जइ । तुरियड जथड सुपर या में, वह शियस दरसिड कामें । ए पीसेस कम्मक्खर, जिणमयर महं छोड दुक्खक्खड । णं णं अप्पपसंसा परणिंदा गरदिया लोये ॥ ५ ॥ अप्पाणं जेय थुव बुद्धिविहीरोय बिंदिय तेया । पुस्कार वह जो पहायरो पायडो तह वि ॥ ६ ॥ जो जोडद्द विशिण पया विसुद्धा जिरावरेहि मह भणिया । या ते चि सरसो भविषायण वच्छलो तह वि ॥ ७ ॥ सुन्व भवियां पिसुरण चढक्काय भग्वजणसूलं । धrय धवलेख कयं हरिवंस-स-सोहणं कव्वं ॥ ८ ॥ अत्थसारउदो सपरिमुक्कु, प्रयाणहंगिप्याइयउधवलु कम्बुमणोहरु एहु सिउ सविखहि, करहु कराया जा गुणमहावरु ॥६॥ जिणाह होकुसुमंजलि देश्वणु, गिब्भू मरणगुणिवर पावेपिरगु पचर चरि हरिवंस कवित्ते, अप्पट पर्यादित सुरहो पुत्ते ॥ १० ॥ मज्भुविए जि कज्ज ण श्ररणें, चडविहु संघु महीयलि दउ, जिरावर-पय-पंकय एवं उठ । ख हु जाउ पिसुगु खलु दुज्जर, दुट्ठ दुरासउ सिंदिय सज्जणु । एक सत्थु मुणिवरहं पडिज्जड, भत्तिषु भविणेहिं खिसु णिज्जड । जाम यहं गणि चंद्र-दिवायर, कुल गिरि-मेरु- महीयल- सायरे । पीथे सु ताम अहिदउ, सज्जण सुहि मणाई शिंदड । बारह सय गयहं कय हरिसई, श्रोत्तरं महीयले वरिसई । क पक्खे गये आयए, तिज्न दिवसे लसिवार समायए । धत्ता -- बारह सयहं गथह कई पद डिएहि र-वरणउ ज-मण-हरणु-सुहू-विव्थर एड सत्यु संपुरणउ ॥ १३ इय मिरि सुक्रमालसामि मोहर चरिए सुंदर पर गुणरयण - वियरसभरिए विहसिरि सुकइ सिरिहर विरहए पुत्त कुमार सामंकिए सुकुमालसामि सम्वत्य-सिद्धि गमणो णाम छट्टो परिच्छेश्रो समतो ॥ संधि ६॥ 17 कई चक्कवह पुब्वि गुणवंतठ, धीर धर १) से होतंड सुपसिद्धर । पुणु सम्मत जुत्त सरागट, जेण पमाणगंथु किउ चगउ । देवदि बहुगुण जस भूमिट, जे वायर जिरिंदु पयालिड 1 वज्जसू सुपमिद्धर मुणिवरु - या गं कि सुदरु | मुखि महसे सुलोयग्गु जेग, पउमचरिउ मुणि रविसेषेण । जिससे हरिवंसु पविस, जटिल मुरणा वर गचरन्तु । । साहु farmer in eft गहो, पउम से आयरिय पासहो हरिवंस पुराणु (हरिवंश पुराण) धवलकवि आदि भाग:गोयाण दीहणालं बेमि-दबी-कह- केसर सुसोहं । भद्द पुरिस विसद्विदलं हरिवंस सरोरुह जय ॥ १ ॥ हरि-हुवा कहा च उमुह चालेद्दि भासियं ह या । तह विरयमि लोयपिया जेय गं यासह दंसणं परं ॥ २ ॥ अमरा विरश्य दोम विवज्जिय सोध्णु । राजा चंद्रह चरिउ मणोहरु, पाव-रहित धरणयत्तु सु-सुदरु | श्रयमि किम एमाइ बहुत्तई, विषहुए रिसिएण चरितङ्कं । सीदि गुरु अणुवेहा, देवें वार सुबेहा । सिद्धसंगु जे ए धागड, भविय विद्योय पपासिय चंगढ । विस-मीसिय वरवीरं जह सा चारिच खंडियारी । उक्कड दंसण मइया मिच्छुचकरं वियं का ॥ ३ ॥ जह गोत्तमेण भणियं सेपियराए पुच्छिया । जह जिसेणेण कथं तह विरयमि किंपि उसे ॥ ४ ॥
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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