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राजस्थानके जैन शास्त्र-भण्डारोंसे
हिन्दीके नये साहित्यकी खोज
(कस्तूरचन्द काशलीवाल, एम. ए. शास्त्री जयपुर) ४. शील बत्तीसी
विषय भोग विषधर एवं विष तीनों ही मृत्यु के कारण यह रचना कवि अकमल-द्वारा निबद्ध है, जो जयपुरके हैं। किन्तु सर्पके काटने और जहरके खानेसे तो एक बार लूणकरण जी पाण्ख्या वाले मन्दिरके शास्त्र-भण्डारके ही मृत्यु होती है, पर विषयों में फंसनेके पश्चात् उससे एक गुटकेमें संगृहीत है । गुटकेका लेखन-काल संवत् १२१ कितने ही जन्म तक दुःख भोगना पड़ता है। है। कविने रचनामें अपना नामोल्लेखके अतिरिक्त समय विषय
विपय विषधर विपु सरसु लीन एकहि मंतु । एवं स्थानक बारेमें कुछ भी नहीं लिखा है। किन्तु गुटकेके विपु विषधर एकै मरण विपया मरण अनंत ॥ लेखन-कालके अाधारसे यह कहा जा सकता है कि कवि विषया मरण अनंत मंत्र ताहि मूल न लागे। १० वीं या इससे भी पूर्व शताब्दीके थे। कवि जैन थे तथा
मनि मुहरा औपधि अपार तिन देखत विषु भागे। हिन्दीके अच्छ विद्वान थे। शोल-बत्तीसी साहित्यिक दृप्टिसे सोई सजन सोई सगुर देई वंभवतु सिखया। भी अच्छी रचना है । रचनामें शीलधर्मके गुण गान गाये कहै अकु धनि सुदिन त दिन जियत विपया ॥ गये हैं तथा ग्यभिचार, परस्त्री-गमन श्रादि बुराइयों
इस प्रकार बत्तीसी समाप्ति पर भी यही लिखा है । की खूब निन्दा की गई है । रचनामें ३४ पद्य है जो सभी हरि हर इंदु नरिंद नर जस जर्षे यक चित्त । सवैया छन्दमें हैं। प्रत्येक सवैया अन्तमें कविने अपने जे नर नारी सील जल तन मन करहिं पवित्त ॥ नामका उल्लेख किया है । रचनाकी भाषा अलंकारमयी है। तन मन करहि पवित्त चित्त मुमरै चौबीसी। अनुमासोंका तो सर्वत्र प्रयोग हा है। भाषा शुद्ध हिन्दी बढ़त सुगर संतोप सगुण यह सील वत्तं सी। खड़ी बोली है।
काम अंध नहि रुचे कहै कोउ को हूँकारि ॥ __कविने लिखा है कि विधाताने आँखें संसारको निहारनेके संवर करह सुजान तासु जसु जंपे हरिहर ॥३४॥ लिये बनायी हैं, न कि दुसरेकी स्त्रियोंको देखने के लिये। ५. मनराम विलास नेन विधाना निरमाए निरखनकी संसार ।
मनराम १७ वीं शताब्दीके प्रधुग्व हिन्दी कवि थे, वे सेनि सबै कल निरखिजे मत निरखै परनारि॥ कविवर बनारसीदासजीके समकालीन थे। मनराम विलासमत निर परनारि जाणि या विपय तनरसु । के एक पद्यमें उन्होंने बनारसीदासजीका स्मरण भी किया तनक नरम हाहि जन मनु जाय कियै वसि ।। है। उनकी रचनाओंके अाधारमे यह कहा जा सकता है कि जे पालै प्रिय सील ते जु सुणियै सिव जाता। मनराम एक ऊँचे अध्यात्म प्रेमी कवि थे। उन्होंने या तो अकु निरखि चालिये नैन निरमए विधाता॥६॥ अध्यात्म-रसकी गंगा बहाई है, या जनमाधारणको उप
कवि इसीक सम्बन्धमें आगे लिखता है कि पर-स्त्रीको देशात्मक, अथवा नीति-वाक्य लिम्बे हैं। कविकी अब तक देख कर चनुर मनुष्यको कभी भी अपना मन चंचल नहीं अक्षमाला, बड़ाकक्का, धर्म सहेली, बत्तीमा, मनरामकरना चाहिये। क्योंकि चारित्र ही मनुष्यका रत्न है, उसे विलाप एवं अनेक फुटकर पद श्रादि रचनाएँ उपलब्ध कौड़ीके लिये नहीं गमाना चाहिये।
हो चुकी हैं। चतुर न कीजै चपल मन देखि परायी नारि । कवि हिन्दीके प्रौढ़ विद्वान थे इसीलिये कविकी कौड़ी कारण सील से रत्न न गवहि गवार ॥ रचनाएँ शुद्ध बड़ी बोली में लिखी गयी हैं। जान पड़ता है रत्न न गवहि गवार सार संसार मत्थि गिण । कि कवि संस्कृतके भी अच्छे विद्वान होंगे, क्योंकि इन तप अनेक जे करें सुख न वि लहहि सील विनु ॥ रचनाओं में संस्कृत शब्दोंका भी प्रयोग मिलता है और वह सुख पवसि परलोक लोक विस्तर सिव-सुह परि। भी बड़े चातुर्य के साथ । लेकिन संस्कृत शब्दोंक प्रयोगसे कह अक धनि सील सील विनु वाद चतुर नर जा कविकी रचनाएँ क्लिष्ट हो गयी हो, ऐसी बात नहीं है।