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३३२ ] अनेकान्त
[वर्ष १४ उसका नालंदा नाम सूत्रकृतांगके उक्त प्राधारका प्रभाव उपनिवेशोंसे ज्ञानकी गगा बहाई है। इसलिए यही बहुत सूचित करता है।
अधिक संभव जान पड़ता है कि 'णाणंदा' इसका प्रारंभिक अ. भा० पुगतत्त्व विभागके डाइरेक्टर जनरलको नाम रहा है, और उसका सीधा संबन्ध भ० महावीरके इस सुझाव पर ध्यान देनेका विशेष अनुरोध है। उपदेशोंसे है। पीछे यह नाम बिगड़ कर या उच्चारणकी टिप्पणी
सुगमतासे लोगोंमें 'नालन्दा' नामसे प्रसिद्ध हुआ प्रतीत
होता है। श्री हीरानन्द शास्त्रीने नालंदा' नामक अपनी पुस्तकमें
श्री दिवाकरजीने जिस सूत्रकृतांगका अपने लेखमें लिखा है कि 'नालंदा' इस नामका निर्वचन क्या है,
हवाला दिया है, उसका वास्तविक अभिप्राय यह है कि यह तो ठीक-ठीक ज्ञात नहीं। नालंदाके आस-पास बहुत सी
नासन्दामें रहते समय भ० महावीरके जो प्रवचन हुए और झीलें हैं, जिनमेंसे बहुतसे 'नाल' निकाले जाते थे और
इन्द्रभूतिने जिन्हें अंगरूपमें प्रथित किया, वे सब
न अब भी निकाले जाते हैं, संस्कृतमें नाल मिस अर्थात्
'नाबन्दीय' अधयनके नामसे सूत्र-ग्रन्थों में उल्लेखित कमलकी जड़को कहते है। यह भूमि नालों को देने वाली
किये गये हैं। श्वे. आगमोंसे भी इसी ब तकी पुष्टि है। यह संभव प्रतीत होता है कि इसीलिए इसे नालंदाके
होती है । यथा
का नामसे अङ्कित किया गया होगा | चीनी यात्री हुएनत्सांगने जो न+अलं+दा (=जगातार दान ) की म्यत्पति दी नालंदाए समीपे मणोरहे भासि इंदभूइग्णा। वह केवल निदान कथा है।"
अज्झयणं उदगस्स उ एवं नालंदइज्जंतु ॥४॥ पर मुझे तो ऐसा प्रतंत होता है कि वस्तुतः इसका नालंदायाः समीपे मनोरथाल्ये उद्याने हवभूतिना नाम 'णाणंदा' रहा है । प्राकृत भाषामें ज्ञानको 'णाण' गणधरेणोदकाल्य - निर्ग्रन्थ-पृप्टेन भाषितमिदमध्ययनम् । कहते हैं। दा नाम देने वालेका है । भ. महावीरने यहाँ
(सूत्र. २ श्रु. ७०) १४ चतुर्मास किये थे-यह बात श्वे. आगम-सूत्रोंसे इतिहासका अध्ययन करने पर यह ज्ञात होता है कि प्रमाणित है। चतुर्मासके समय लोग उनसे ज्ञान प्राप्त भ. महावीरके निर्वाणके पश्चात् लगभग दो-तीनमौ वर्षों करते रहे और लोग अन्य लोगोंको भी ज्ञान-प्राप्तिके लिए तक जैनाचार्योंके द्वारा उस स्थानसे भगवानके प्रवचनोंका प्रेरणा करते हुए कहते रहे कि जामो-राजगिरके ईशान- प्रसार होता रहा है। पीछे जैन सम्प्रदायमें मत-भेद उठ कोण में बाहिरिकाके समीप ज्ञानको देने वाला विद्यमान है, खडे हए और अधिकांश जैन साधुओंने बिहार प्रान्तस उसके पास जाकर ज्ञान प्राप्त करो। संभवतः तभीसे भ. अन्य प्रान्तोंको विहार कर दिया, तब किसी समय वो महावीरका श्राश्रय पाकर उस स्थानका ही नाम 'नाणंदा' औ साधान रहना प्रारम्भ कर दिया और धीरे-धीरे प्रारम्भमें रहा होगा।
उनका प्रभाव वहाँ बढ़ता गया | हुएनन्मांगके लगभग बौद्धग्रन्थोंसे ऐसा कोई खास पता नहीं लगता है कि तीनसौ वर्ष पूर्व फाहियान नामक एक चीनी यात्री पाया बुद्धने वहाँ पर दो चार चतुर्मास किये हों। हाँ एकाध बार था, और उसने भी अपनी भारत-पात्राका वर्णन लिखा है। बुद्ध वहाँ ठहरे अवश्य हैं, पर उस स्थान पर उनके चतुर्मास उसने नालंदामें एक स्तूपके सिवाय किसी खास चीजका करनेके कारण वह स्थान उस समय भ० महावीरके नामसे उरलेख नहीं किया है इससे ज्ञात होता है कि उसके जितना विख्यात हुश्रा, संभवतः उतना बुद्ध के कारण नहीं। पानेके समय तक नालन्दामें बौद्धधर्मका कोई प्रभाव या क्योंकि बबने अपने धर्मका प्रवर्तन सारनाथसे किया है, जो विद्यापीठ प्रादि नहीं था। उसके बाद और हुएनत्सांगके पूर्व कि बनारसके समीपमें है। पर भ. महावीरने राजगिरके १६ वीं शताब्दीके मध्यमें बौद्धविद्यापीठ वहाँ स्थापित समीपस्थ विपुलाचलसे ही अपना श्राप उपदेश दिया है हुआ है ऐसा अनुमान होता है। और राजगिरकी विभिन्न दिशाओं में स्थित गिरि, उपवन और
-हीरालाल सिद्धान्त शास्त्री