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२४.]
अनेकान्त
[वर्ष १४
मुणिवर बाहेण निसोहिम्बड
अंतिम भाग:महुलहु बुदिए दोसु म दिवउ ।
सय पमाय संवरकर खीणह, पत्ता-अण मंगलया एहुमणं माहासिउ जियधम्म पहुब्वण । पुणु सत्तग्गल सरवोलीबह । ......"पवड धरणियति णिमल्ल-बोहि-समाहि-महो । वसाहहो किराह विसत्तम दिणि, इस संभवजिय-चरिए सावयायार विहाण-फलाणुसरिए
किउ परिपुरणउ जो सुह महुर-णि । कहतेजपाल वरिणदे सजण-संदोहमणि अणुमरिणदे सिरि
विउलकित्ति मुणिवरहु पसाएं, महामन्व-धील्हा सण भूमणो संभवजिरा शिवाण गमगो
रहयड जिणमत्तिय अणुराए। शाम छहो परिच्छेमो समत्तो सिंधि ॥
मूलसंघ गुणगण परियरियड, -प्रति ऐ..दि. जैन सरस्वतीभवन यावर
रयणकित्त हूयउ मायरियउ । लिपि सं०१५-३
भुवकित्ति सीसु वि जायठ, २६ वाचरित (वगंगचरित)
खम-दमवंतु वि मुणि विक्खायउ । कवि तजपाल रचनाकाल सं० १५००
तासु पट्टि संपय विशिविहिट्ठड, मादिभाग:
धम्मकित्ति मुणिवरु वि गरिट्टर। पणविवि जिणईसहो जियवम्मीसहो केवलणाण पयासहो।
तहो गुरहाइ विमलगुण धारउ,
मुणि सुविसालकित्ति तव सारउ । सुर-गर-खेयर-बुह-णुय-पय-पयरूह. वसु कम्मारि विणासह ।।
सो अम्हहं गुरु जहि महु दिरियाय, वसु-गुण-समिद्ध पावेवि सिद्ध,
पाइय करण बुद्धि मइ गिरिहय । पायरिय गमो जगि जे पसिद्ध ।
जिणभत्ति-पसायं मइ अणुराय कियउ कम्वु कय तमु विलउ उज्झाय-साहु पविवि तियाल, सिव-पहु दरसाविव गुण-विसाल ।
पुणु गुरुणा सोहिउ हरह विरोहिउ विउकित्ति बयण-तिलड वापसरि होड पसरण-बुद्धि,
सर पियवासउ पुरसुरसिद्धत, जिणवर वाणिय कय-विमल-बुद्धि ।
धण-कण-कंचण-रिद्धि-समिट। हउँ खेड छंद जक्खन-विहीणु,
वरसावडहवंसु गरु थारउ, वायरणु ण जागमि बुद्धि-हीणु ।
जालहउ णाम साहु वणिसार । बड जाणमि संषि समास किपि,
तासु पुत्तु सूजउ दयवंतर, चिट्ठत्त करेसमि कम्खु तंपि ।
जिण धम्माणुरत्त सोहंतड। हउं जाथमि जिणवर भत्ति जुत्ति,
तासु पुत्त जहि कुल उद्धरियड, वित्थर जेश पविमल सुकित्ति ।
रणमल बामु मुबहु गुणभरियड । जे विउल बियक्खण बुद्धिवंत,
तहो लहुयउ वल्लालु वि हुँतउ, जिशभत्ति-जीण पटिय महंत ।
जिण कल्लाइ अत्त कुणतउ । तेहपाहिउ पर मुशिवि कम्वु,
पुणु तह लहुयट ईसरु जायउ, परिट्टबहु थारु पड परम भब्यु ।
सपा प्रत्यह दय गुणरायउ॥ सुरसरणयरहिं शिवसंत संत,
पोल्हणु सामु चउत्थु पसिद्धर, महु चिंतउ परिणय मणि महंत ।
शिय-पुण्णण दग्व बहुलबुड । महु णाम पसिद्ध तेयपालु,
इय चत्तारि वि बंधव जायणु, मह गमिउ णिरस्थउ सयजु कालु।
वर खंडिलवाल्त विक्खायणु ॥ एवहि हउ करमि चिरमलु हरमि रायवरंग चाह चरिउ । रणमल णंदणु ताल्हुय हुंतउ, जणु जवि याबहु तमुहयर्च कोकाल-सएहि भरिट ॥३॥
तासु पुत्त हका -गुण-जुस ।