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________________ ३४] अनेकान्त [वर्ष १४ तिहुयण-सयंभु जइ ण हुंतु णंदणो सिरि सयंभुदेवस्स । करि कव्वु दिएणु मइ विमलमह । कम्व कुलं कवित्त तो पच्छा को समुद्धरइ ॥७॥ इंदेण समप्पिड वायरणु, जहण हुउ छौंदचूडामणिस्स तिहुयणसयंभु लहु तणउ । रसु भरहें वासे वित्थरणु । तो पद्धडिया कन्वं सिरिपंचाम को समारेउ ॥८॥ पिंगलेण छन्द-पय-पत्थारु, सम्वो वि जणो गेण्हइंणियताय-विढत्त दव्व-संताणं । भम्मह-दक्षिणहि अलंकार । तिहुयण-सयंभुगा पुण गहियं ण सुकइत्त-पंताणं ॥६॥ वाणेण समपिउ घण घणउ, तिहुयण-सयभुमेक मोत्त ण सयंभुकम्व-मयरहरो । तं अक्खर-डंबरु अप्पणउ । को तरइ गतुमंतं मग्मे हिस्सेस-सीसाणं ॥१०॥ सिरिहरिसे णिय णिउत्तणउ, इय चार पोमचरियं सयभरवेण रइय सम्मत्त । अवेरहि मि कहहिं कइत्तणउ । तिहुयण-सयंभुणा तं समाणियं परिसमत्तमिणं ॥११॥ छड्डणिय-दुवइ-धुवएहिं जडिय, मारुय-सुय-सिरिकहराय तणय-कय-पोमचरिय अवसेसं । चउमहेण ममप्पिय पद्धडिय । संपुण्णं संपुण्णं वंदइरो लहउ संपुगणं ॥१२॥ जण णयणाणंद जणे रियए, गोइंद-मयण सुयणंत विरइयं (१) वंदइय-पढमतणयस्स । श्रासीसए सव्वहु केरियए। वच्छलदाए तिहुयण सयंभुणा रइयं महप्पयं ॥ पारंभिय पुणु हरिवंस-कहा, वंदइय-णाग-सिरिपाल-पहुइ-भव्ययण-समूहस्स । स-समय-पर-समय वियार-सहा । भारोगत्त समिद्धी संति सुहं होउ सच्चस्स ॥ घत्ता--पुच्छइ मागहणाहु, भव जर-मरण-वियारा । सत्त महा संसग्गी तिरयणभूसा सु रामकह-करणा। विउ जिण सामणु केम,कहि हरिवंस भडारा ॥२॥ तिहुयण-सयंभु-जणिया परिणउ वंदइय मणतणउ॥ इय रामायण पुराण समत्तं इय रिठणेमिचरिण धवलइयामिय मयंभुण्वकए सिरि विज्जाहर-कंडे संघीयो हुंति धीम परिमाणं । पढमो समुहविजयाहिलेयणामो इमो मग्गो ॥१॥ उज्माकंडंमि तहा बावीस मुणेह गणणाए ॥ अन्तिमभाग:चउदह सुंदरकंडे एक्काहिय वीसजुज्मकंडेण | इह भारह-पुराणु सुपमिदउ, उत्तरकंडे तेरह सन्धीयो णवइ सन्चाउ ॥छ॥ मिचरिय-हरिबंगाइद्धउ । लिपिकार प्रशस्ति वीर-जिणे भवियहो अक्विउ, संवत् १५५४ वर्षे वैशाख सुदि १५ सोमवार ग्रन्थ पच्छइ गोयमसामिण रविवउ । संख्या १२००० । सोहम्में पुणु जबूसामें, २-रिटणेमिचरिउ [हरिवंश पुराण]-महाकविस्वयंभू, विण्हुकुमारे दिग्गयगामें । आदिभागः दिमित्त अवरजिजय णाहें, सिरि परमागम-णालु मयल-कला-कोमल-दलु । गोवद्धणेण सुभद्दहवाहें। करहु विहसणु करणे जयव कुरुव-कुलुप्पलु ॥ एम परंपराई अणुजन्गउ, श्रायरियह मुहाउ श्रावग्गउ । चितवइ सयम्भु काई करमि, सुणु संखेव सुत्त अवहारिउ, हरिवंस-महण्णउ के तरम्मि । विउमें सय में गहि वित्थारउ, गुरु - वयण - तरंडउ लधु णवि, पद्धडिया छन्दै सुमणोहरु । जम्महो विण जोइउ कोवि कवि।। वियण-जण-मण-सरण-सुहकरु, एउ णाइड वाइत्तरि कलाउ, जस परिससि कहिं जं सुएउ । एक्कु विण गंधु परिमोक्फजाउ। तं तिहुय-सयंभु किउ पुग्णर, तहिं अवसरि सरसह धीरवइ, तासु पुत्त पिउ-भर-णिवाहिउ ।
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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