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________________ क्या मांस मनुष्यका स्वाभाविक आहार है ? (श्री पं० हीरालाल सिद्धान्त शास्त्री) मांस खाना मनुष्यका स्वाभाविक भोजन नही योग्य है कि खानेकी चीजें दो तरहकी होती हैंहै, इस बातकी परीक्षा प्रकृतिदेवीके सच्चे उपासक एक आबी (जनसे उत्पन्न होने वाली) और दूसरी और तदनुकूल कार्य करने वाले पशुओंसे सहजमें हो पेशाबी (रज और वीर्यके संयोगसे पैदा होनेवाली)। जाती है। पशुओंकी दो जातियाँ हैं-एक मांसाहारी प्रावी पदार्थ वे हैं जो बारिश या पानीकी सिंचाईसे दूसरी शाकाहारी (घास खानेवाली)। मांसाहारी पैदा होते हैं। जैसे गेहूं, चना, मटर आदि अनाज कुत्सा, बिल्ली और अंगूर, अनार, सेव आदि फल, तथा शाकसिंह आदि हिंस्र प्राणियोंके होते हैं। शाकाहारी भाजी आदि । पेशाबी चीजोंमें मनुष्य और पशुपशुओंके नाखून पैने या नुकीले नहीं होते, जैसे कि पक्षियोंकी गणना की जाती है, क्योंकि समस्त पशुहाथी, गाय, भैंस, ऊंट आदिके । मांसाहारी पक्षी आदि पेशाबसे ही पैदा होते हैं। और इन्हीं पशुओंके जबड़े लम्बे होते हैं, पर शाकाहारियोंके पेशाबी पशु आदिके घातसे मांस पैदा होता है। गोल । गाय और कुत्ते के जबड़े देखनेसे यह भेद इन दोनों प्रकारकी चीजोंमें पेशाबी चीज गन्दी, साफ-साफ नजर आयेगा। मांसाहारी पशु पानीको अपवित्र एवं अभक्ष्य है और आवी चीजें सुन्दर, जीभसे चप-चपकर पीते हैं, किन्तु शाकाहारी प्राणी पवित्र अतएव भक्ष्य है। होठ टेककर पीते हैं। गाय, भैंस, बन्दर और सिंह मांसके खानेवाले लोग समझते हैं कि मांस श्वान, बिल्ली आदिको पानी पीते हुए देख कर यह खानेसे शरीरमें ताकत बढ़ती है, किन्तु यह धारणा भेद सहज में ही ज्ञात हो जाता है। परन्तु मनुष्यों में ह। परन्तु मनुष्याम नितान्त भ्रमपूर्ण है। ताकत बढ़ानेके लिये मांसमें पशुओंके समान दो प्रकारकी जातियाँ दृष्टिगोचर ५३-५५ डिग्री अंश है, तब गेहूँ में ८, चनेमें १२४, नहीं होती। मूंगमें ११८, भिंडीमें १२१ और नारियलमें १६५ __ यह एक आश्चर्यकी बात है कि अपनेको बन्दर- डिग्री शक्तिवर्धक अंश है । शक्ति मांस-खोर शेर, की औलाद मानने वाला पश्चिमी संसार बन्दरोंका चीते, बाघ आदिकी अपेक्षा घास-भोजी हाथी, घोड़े खाना-पीना छोड़कर कुत्त-बिल्लियोंका खाना कैसे बैल आदिमें बहुत होती है । बोझा ढोना, हल खाने लगा। यह तो विकास नहीं, उल्टा हास हुआ। खींचना आदि शक्तिके जितने भारी काम घोड़े, जब ये पश्चिमी वैज्ञानिक आंत, दांत, हड्डी आदि- बैल आदि कर सकते हैं, उतना काम शेर आदि की समता देखकर मनुष्यको बन्दर तकको सन्तान नहीं कर सकते । यही बात मनुष्यमि है। जो मनुष्य मानेसे नहीं चूकते, तब फिर उसीकी समतासे वे परिश्रम और व्यायाम करनेवाले हैं, वे यदि अन्न, * शुद्ध शाकाहारी क्यों नहीं बने रहते, यह सच- मेवा आदि खाते हैं, तो मांस-भक्षियोंकी अपेक्षा मुच विचारणीय है । यथार्थ बात तो यह है कि अधिक शक्ति-सम्पन्न होते हैं। मनुष्य रसना (जीभ ) के स्वाद-वश मांस-भक्षण मानसिक बल तो मांस खानेसे उल्टा कमजोर जैसे महा अनर्थकारी पापमें प्रवृत्त हुआ और होता होता है। संसारमें आजकल हम जहाज, विमान, जा रहा है, अन्यथा यह उसका स्वाभाविक भोजन टेलीफोन, प्रामोफोन आदि जिन आविष्कारोंको नहीं है। क्योंकि मनुष्यके दांतोंकी वनावट और देखकर मनुष्यकी बुद्धिका नाप-तौल करते हैं, उन उसके खान-पान आदिका तरोका बिल्कुल शाका. चीजोंके आविष्कारक मांस-भक्षी नहीं, अपितु फलाहारी प्राणियोंसे मिलता है। इससे यह निर्विवाद हारी और शाक-भोजी थे। सिद्ध है कि मांस-भक्षण मनुष्यका स्वाभाविक आहार किसी छोटे बच्चे के सामने यदि मांसका टुकड़ा नहीं है। और सेव, सन्तरा आदि कोई एक फल डाला जाय, दूसरी एक महत्वपूर्ण बात यह भी जाननेके तो बच्चा स्वभावतः अपने आप फलको हो
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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