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________________ किरण ३-४] जैन-प्रन्थ-प्रशस्ति-संग्रह [१२१ जं कि पि हीण-अहियं विउमा मोहतु पि इयकन्ने । सुकवित्त-करणे मणे बद्धगाहु, निसिसमहवियप्पा एव साहु । घिद्वत्तणेण रइयं खमंतु सव्वंपि महु गुरुणो ॥७॥ जाणियय नमई कालक्खराई, न सुबउ बायरएउ सवि. राई। यत्वाच्यं चतुराननाजनिरतं सत्पद्यतामत्वकं । पय छेउ सधि-विग्गहु-समासु,मणि फुरइ न एक्कवि मइ-पयासु स्वैर भ्राम्यति भृमिभागारिवल कुनि बलशं क्षणात । छंदालंकारु न बुज्झिमड, निग्धंटु तबकु दूरझियउ । तेनेदं प्रकृन चरेत्रमसमं सिद्धन नाम्ना पर, नवि भरहु सब्बु बक्खाणियउ,महकइ किउ कम्वु न जाणियउ प्रद्युम्नम्य सुतस्य कर्ण सुखदं श्रीपूर्व देवद्विषः ॥ सामग्गि न एक्क वि मज्मु पासि, उत्तरमि केव महबु रासि । आमेर प्रति मं० १९७७ से और फरुखनगर प्रति माहिय सह माहुविसरण मम् . इय रित्तवंत थिउ एक्कु स्वणु सं० १५५० से) कलहंसगमण मसिबिंब-धयण , विलुलंत-हार-सयचत्त-नयण । १६ पामणाहचरिउ (पार्श्वनाथचरित) कवि देवदत्त आदिभाग-: सिरिपासनाह-चरिए चउवग्गफले भवियजण-मणाणंदे मुणिदेवचडवीमचि जिणवर दिट्टपरंपर, वंदवि मृढडिटि रहिउ । यंदरइए महाकव्वे विजया मंधी ।। वर-चरिउणिदहो पामजिणिहो णिसुणि उजउ वईयरमहिउ॥ अन्तिभाग.वंदवि जिणनोयालाय जाण, दुवई- देसिय गच्छि मीलगुणा गणहरु, अत्तीद-अणागय-बमाण । भविय सरोजनेमरो। पुग्णु सिद्ध श्रणंत महाजमंस , श्रास सुयंबु गमि अवगाहणु, जो मोक्ख-महासरि-रायहंसु । सिरि मिरिकित्ति मुणिवरो। श्राइरिश मुअंबुहि-पारु-पन , तहो परम मुणिंदहो भुवण भामि, सिद्धबहु कडमविणिहिय विचित्त । संजाउ सीम तब-तेय-रासि । उज्झाय परम-पवयण पवीण, नामेण पसिद्धउ देवकित्ति, बहु-मीम मुनिम्मल-धम्म-लीण। पुणु माहु महत्यय-बूढ-भार, बावीस-परीसह-तरु-कुठार । तहो सीसु तवेण अमेयनेड, पंचवि परमेटि महामहल्ल, गुणनाउ जासु जगि मउनिदेउ । पनि निम्मच्छर-मोह-मल्ल । गिग्वाण-वाणि गंगा-पवाहु, पंचमि कहिउ दयधम्मु साह, परिचत्त-सगु तवसिरि-सणाहु । पंचहमि पयासिउ-लोय-चारु । तहो माहवचंदहो पाय-भत्तु, पंचहमि न इच्छित दुविहु मंगु, प्रासीह सुयायरु सीस चुत् । पंचहमि निराउहु किउणगु । निम्माहिय-वय-भर अभयणंदि, पंचहमि भग्गु-इंदिय-मडप्यु, निय-नाउ लिहाविउ जेण चंदि । चहिं किउ-शिविसु-विसय-सप्पु । इस दुसम-कालि कुंकण बलेण, पंचवि परिकलिय-असेस-विज्ज, डोल्लंत धम्मु थिरु-कयउ जेण । पंचवि निय-निय-गुण-गण-सहिज्ज । ते दिक्खिउ वासषचंद सरि, पंचहमि कलिउ णाणई समग्गु, में निहिउ कसाय-चउक्कु-चूरि। पंचहमि पयासिड मोक्ख-मग्गु । भवियण-जब-नयमाणंदिराई, घत्ता उद्धरियई जे जिण-मंदिराह। पंचवि गुरुवंदवि मणिअहिणंदवि जिणमंदिरे मुणि अग्रह। तहो सीसु जाट मुणि देवचंद, पपत्य-मणोहरे अकाषर-संबरे सुकवित्तहो मएड गच्छद ॥१॥ अविलंब वाणिकर कुमुअयंदु ।
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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