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________________ किरण] अहिंसा और हिंसा जैसे दाल, चावल, गेहूँ, दूध, ताजेफल, सूखीमेवा राजसिक भोजन करनेवाले व्यक्तिको मनोवृत्ति और ताजी शाक भाजी श्रादि । जिस भोजनके करने यद्यपि तामसिक भोजीकी अपेक्षा बहुत कुछ अच्छी पर मनमें रोष, अहंकार श्रादि राजसिक भावोंका होती है, पर फिर भी उसे जरा-जरासी बातों पर उदय हो, किसी पवित्र कार्यके करने के लिए मनमें चिड़चिड़ाहट उत्पन्न होती रहती है, चित्त अत्यन्त उमंग-उत्साह न हो, प्रस्तुत मान-बढ़ाई और प्रतिष्ठा चंचल और मन उतावला रहता है, अपनी प्रशंसा प्राप्त करनेके लिए मनमें उफान उठे, वह राजसिक और पराई निन्दाकी ओर उसका अधिक मुकाव भोजन है। अधिक खटाई, नमक और मिर्चीवाले रहता है, यह यशः प्राप्तिके लिए रणमें मरणसे भी चटपटे पदार्थ, दहीबड़े, पकौड़े और नमकीन चाट नहीं डरता है। वगैरह राजसिक भोजन समझना चाहिए। जिस सात्विक भोजीकी मनोवृत्ति सदा सात्विक भोजनके करनेसे मन में काम-क्रोधादि विकार उत्पन्न रहेगी। इसके हृदय में प्राणिमात्रके प्रति मैत्री-भावना हों, पढ़ने-लिखने में चित्त न लगे, हिंसा करने, झूठ होगी, गुणीजनोंको देखकर उसके भीतर प्रमोदका बोलने और पर स्त्री सेवन करनेके भाव जागृत हों, पारावार उमड़ पड़ेगा और दीन-दुःखी जनोंके वह तामसिक भोजन है। मद्य, मांस और गरिष्ठ उद्धार करनेके लिये वह सदा उद्यत रहेगा और श्राहारके सेवकको तामसिक भोजन कहा गया है। दिल में दया और करुणाकी सरिता प्रभावित रहेगी तामसिक भोजन करनेवाला व्यक्ति जरासा उसका चित्त स्थिर और प्रसन्न रहेगा । ज्ञानोपाभी निमित्त मिलने पर एकदम उत्तेजित हो आपेसे र्जनके लिए सदा उद्यत रहेगा। बाहर हो जाता है और एक बार उत्तजित हो जाने उक्त विवेचनसे यह स्वतः सिद्ध हो जाता है कि पर फिर उसे अपने आप काबू पाना असम्भव हो मनुष्यके भीतर मानवीय और दैविक गुणोंकी प्राप्ति जाता है। तासिक भोजन करनेवालेकी प्रवृत्ति और उनके विकासके लिए सात्त्विक भोजन करनेकी हमेशा दूसरोंको मारने-पीटने और नीचा दिखाने- अत्यन्त आवश्यकता है। तामसिक भोजनसे तो को रहेगी। वह दूसरेके न्यायोचित अधिकारोंको पाशविक और नारकीय प्रवृत्तियाँ ही जागृत होती भी कुचल करके अपने अन्याय पूर्ण कार्योंको महत्त्वकी हैं यदि हमें नारकी और पशु नहीं बनना है, तो यह दृष्टिसे देखेगा। तामसिक भोजी अत्यन्त स्वार्थी अत्यन्त आवश्यक है, कि हम तामसिक भोजनका और खुदगर्ज होते हैं। सदाके लिए परित्याग कर देवं। अहिंसा और हिंसा अहिसा जीवन है, तो हिंसा मरण है। अहिंसा रखती है, तो हिंसा धेर्यका नाश करती है। अहिंसा शान्तिकी उत्पादिका है। अहिसा उन्नतिक शिखर पर गंगाकी शीतल धारा है, तो हिंसा अग्निकी प्रचण्ड ले जाती है, तो हिंसा अवन्नतिके गर्तमें ढकेलती है ज्वाला है। अहिंसा रक्षक है, तो हिंसा भक्षक है । अहिसास्वर्ग और मोतका द्वार है तो हिंसा नरक और अहिंसा शारदी पूर्णिमा है, तो हिंसा भयावनी अमानिगोदका द्वार है । अहिंसा सदाचार है, तो हिंसा वस्या । अहिंसा भगवतीदेवी है, तो हिंसा विकराल दुराचार । अहिंसा प्रेमका प्रसार करती है, तो हिंसा राक्षसी। अहिंसा भव-दुःख-मोचिनी है, तो हिसा द्वेषको फैलाती है। अहिंसा शत्रुओं को मित्र बनाती सर्व-सुख-शोपिणी है । अहिंसासे संवर, निर्जरा और है तो हिंसा मित्रोंको शत्रु बनाती है। अहिंसा विरा- मोक्ष होता है, तो हिंसासे आस्रव, बन्ध और संसार धियोंके विरोधको शान्त कर परस्परमें सुलह कराती होता है। ऐसा जानकर आत्म-हितैषियोंको हिंसाहै, तो हिसा स्नेहीजनोंमें भा कलह कराती है। राक्षसीको छोड़कर अहिंसा भगवतीका श्राश्रय नेता अहिंसा सर्वप्रकारके सुखोंको जन्म देती है तो हिंसा चाहिए। सभी दुःखोंको जन्म देती है। अहिंसा धैर्यको जीवित -तु० सिद्धसागर
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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