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________________ अनेकान्त [ वर्ष १४ ने अंग-पूर्व तथा बाह्यांगमें गूंथा वही आचार्यक्रम- समाप्ता' इस अधिकार-समाप्ति-वाक्यसे पहले से चला आया शुद्धिविधान मैने संज्ञीके लिये कहा प्रशस्तिके वे प्रथम दो पद्य दिये हुए हैं जो 'मान्याहै ।इसके बाद वह प्रकरण दिया है जो श्रावकोंके खेटे मंजूषेती' और 'श्रीकोंडकुन्दनामांकां' से प्रारम्भ भेदोंसे प्रारंभ होकर चतुर्थ शिक्षाव्रतकी शुद्धि तक है होते हैं, जिनसे ऐसा भान होता है कि वहाँ प्रशस्ति और उसके अन्तमें लिखा है-"हेमनाभं समाप्त" दी जानेको थी जिसका दिया जाना रोका गया है इस प्रकरण का सम्बन्ध व्यक्त करने वाले प्रारम्भके और द्वितीया चूलिकाकी ममाप्ति करके 'हेमनाभ' चार पद्य इस प्रकार हैं : प्रकरण दिया गया है, जिसका अधिकारोंकी सूची"भगवान् हेमनाभाथ्यो नन्वा पृष्ठोऽथ चक्रिणा में खास तौर से कोई नाम भी नहीं है। संशिवतातिचाराणां शुद्धिं हि ममांचितां ॥१॥ ___ अन्तमें मैं इतना और भी बतला देना चाहता भरतमाह नाभेयः प्रथमं चक्रवर्तिनं । हूँ कि ग्रन्थके विषय पर सामान्यतः सरसरी नज़र शृणु चक्रेश वचयेऽहं श्रावकी शुद्विमुत्तमाम् ॥२॥ डालनेसे यह मालूम होता है कि ग्रंथ अच्छा महत्व कालानुरूपतः सवं यच्छु तं चक्रिणा पितुः । का है, सरल है और उसमें अनेक ऐसे विषय चर्चित तथैव श्रेणिकोऽश्रीषीवीराह :षमशोधनम् ॥३॥ हैं जो दूसरे प्रायश्चित्त-ग्रन्थों में नहीं पाये जाते, तदंगपूर्वबाह्यांगै ग्रंथयामास गौतमः । अथवा उनमें कोई सूत्ररूपसे संकेत मात्र को लिए तदाचार्यक्रमायातं संज्ञिने कथितं मया ॥३॥ हुए हैं जो इसमें अच्छी स्पष्टताके साथ दिये गये इन प्रास्ताविक पद्यों की स्थितिको देखते हुए हैं। इस प्रथका दूसरे प्रायश्चित्त ग्रंथोंके साथ यह बहुत संभव जान पड़ता है कि यह सारा ही तुलनात्मक अध्ययन होनेकी बड़ी जरूरत है, उमसे प्रकरण, जो ७२ (५४+१३) श्लोक-जितना है, अनेक विपयों पर अच्छा प्रकाश पड़ सकगा। ग्रन्थमें बादको किसीके द्वारा प्रक्षिप्त किया गया है। इसके लिए किसी विद्वानको खास तौरसे प्रयत्न करना क्योंकि इन पद्योंका सम्बन्ध साहित्यादिकी दृष्टिसे चाहिए। यह ग्रन्थ शीघ्र प्रकाशमें लानेके योग्य है। ग्रन्थके साथ कुछ ठीक बैठता हुआ मालूम नहीं श्रावण कृष्णा ५ सं० २०१३ होता । इनसे पूर्व और 'गद्यपद्योक्तद्वितीया चूलिका २१, दरियागंज, दिल्ली हमारा प्राचीन विस्मृत वैभव (श्री पं० दरबारीलाल कोठिया, न्यायाचार्य) श्री अतिशय क्षेत्र पटनागंज नन्दीश्वर द्वीपकी रचना, सहस्रकूट चैत्यालय, बावन जिनागत ग्रीष्मावकाशमें हमें कुछ दिनोंके लिये सागर लय तथा छोटी-छोटी अनेकों टोंके और सैकड़ों मनोज्ञ (मध्यप्रदेश) जानेका अवसर मिला था। मित्रवर श्रीयुत वेदियां इस बातके प्रमाण हैं कि यहां कितना सांस्कृतिक पं.चन्द्रमौलिजीकी प्रेरणासे श्री अतिशय क्षेत्र पटनागंज वैभव विद्या पड़ा है और हमारे पूर्वज किस तरह इन धार्मिक भी, जो सागर रहलीके निकट है, जानेका सौभाग्य मिला। कार्यो में तत्पर रहते थे। किन्तु एक हम हैं, जो उनका वहां १३वीं शताब्दीसे लेकर १८वीं शताब्दी तकके निमित जीर्णोद्वार भी करने में असमर्थ हैं। मन्दिर, मति और शास्त्र अनेक जीर्ण-शोर्ण विशाल शिखरबन्द जिनालयोंको देखकर ये संस्कृतिकी स्मारक वस्तुएँ हैं। इनसे संस्कृतिके सम्बन्धमें हमारा मस्तक नत होगया। लगभग सात-आठसौ वर्ष हमें जानकारी मिलती है और ज्ञात होता है संस्कृतिका पूर्व इस प्रान्तके धर्मप्राण श्रद्धालु बन्धुओंने जिस उत्कट प्रतीत गौरव । विश्व-विख्यात श्रवणवेल्गोलकी गोमटेश्वर भक्ति और हार्दिक धार्मिक भावनासे प्रेरित होकर अपने सद् बाहुबलीकी उत्तुंग मूर्ति आज भी जैन संस्कृतिका गौरव द्रव्यका सदुपयोग किया है स्तुत्य है। श्री पंचमेरु-मन्दिर, प्रदर्शित करती है । खजुराहो, देवगढ़ आदिके मनोज्ञ एवं -
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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