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________________ - - - - --- - किरण ७] विश्व शान्तिके अमोघ उपाय [१६१ इस पर्वका सम्बन्ध भगवान् ऋषभदेवकी स्मृतिसे रहा होगा। शुद्धिके पर्वके रूपमें मनाए, तो वह भारतका राष्ट्रीय पर्व यदि इस पर्वको श्रमण और ब्राह्मण दोंनों परम्पराए प्रात्म- बन सकता है। नोट :-विद्वान लेखकने यह लेख यद्यपि श्वेताम्बर शास्त्रोंके आधार पर लिखा है, तथापि उनके द्वारा निकाले गये निष्कर्ष मननीय हैं। --सम्पादक विश्व-शांतिके अमोघ उपाय (ले. श्रीअगरचन्द नाहटा) विश्वका प्रत्येक प्राणी शान्तिका इच्छुक है; जो कतिपय विश्वके समस्त प्राणियोंकी बुद्धिका विकास एक-सा पथ-भ्रान्त प्राणी अशांतिकी सृष्टि करते हैं वे भी अपने नहीं होता, अतः विचारशील व्यक्रियोंकी जिम्मेदारी बढ़ लिये तो शान्तिकी इच्छा करते हैं । प्रशान्त जीवन भला जाती है । जो प्राणी समुचित रीतिसं अशांतिके कारणोंको किसे प्रिय है । प्रतिपल शान्तिको कामना करते रहने पर जान नहीं पाता, उसके लिये वे विचारशील पुरुष ही मार्गभी विश्व में अशांति बढ़ ही रही है। इसका कुछ कारण प्रदर्शक होते हैं। तो होना ही चाहिये। उसीकी शोध करते हए शांतिको दुनियाँके इतिहासक पन्ने उलटने पर सर्वदा विचार किया जाता शील न्यक्रियोंकी ही जिम्मेदारी अधिक प्रतीत होती है। है । आशा है कि इसमें विचारशील व विवेकी मनुप्योंको विश्वके थोड़े से व्यक्रि ही सदा दुनियोंकी अशान्तिके कारणोंश्राशाकी एक किरण मिलेगी, जितनी यह किर । जीवनमें न को ह दनेमें आगे बढ़े, निस्वार्थ भावसे मनन कर उनका व्याप्त होगी उतनी ही शान्ति (विश्व शान्ति) की मात्रा रहस्याद्घाटन किया श्रीर समाजके समक्ष उन कारणों को बढ़ती चली जायगी। रखा । परन्तु उन्होंने स्यं अशान्तिके कारणोंसे दूर रहकर व्यक्रियों का समूह ही 'समाज' है और अनेक समाजों- सच्ची शान्ति प्राप्त की। का समूह एक दश है। अनेकों दशोंके जनसमुदायको हो, नो व्यक्रिकी अशान्तिका कारण होता है अज्ञान, 'विश्व-जनना' कहते हैं और इसी 'विश्व जनता के धार्मिक, अर्थात व्यक्रि अपने वास्तविक स्वरूपको न समझकर नैतिक, दैनिक जीवनक उच्च और नीच जीवनचर्यास विश्वमें काल्पनिक स्वरूपको सच्चा समझ लेना है और उसी अशांति व शान्तिका विकास और हाम होता है। अशान्ति व्यक्रिकी प्राप्तिके लिए लालायित होता है, सतत प्रयत्नशील सर्वदा अवांछनीय व अग्राह्य है । इसीलिये इसका प्रादुर्भाव रहता है इससे गलत व भ्रामक रास्ता पकड़ लिया जाता कब कैस किन-किन कारणों में होता है, इस पर विचार है और प्राणीको अनेक कष्ट सहने पड़ते हैं। उन कष्टांक करना परमावश्यक है। प्रथम प्रत्येक व्यक्रिक शान्ति व निवारणार्थ वह स्वार्थान्ध हो ऐमी अधार्मिक तथा नीतिअशान्तिके कारणोंको जान लेना जरूरी है इसीसे विश्वकी विरुद्ध क्रियाएँ करना है कि जिनसे जन समुदायमें हलचल शांति व अशांतिके कारणों का पता लगाया जा सकेगा। मच जाती है और अशान्ति आ खडी होती है। यह व्यक्तिकी अशांतिकी समस्याओंको समझ लिया जाय और स्वरूपका अज्ञान जिस जैन परिभाषामें 'मिथ्यात्व' कहते हैंउसका समाधान कर लिया जाय नो व्यक्यिोंक मामूहिक क्या है ? यहा कि जो वस्तु हमारी नहीं है उसे अपनी रूप 'विश्व' की अशान्तिके कारणोंको समझना बहुत प्रामान मान लेना और जो वस्तु अपनी है उसे अपनी न समझ हो जायगा । संसारका प्रत्येक जीवधारी व्यकि यह सोचने कर छोड़ देना या उसके प्रति उदामीन रहना । उदाहरणार्थलग जाय कि अशान्तिकी इच्छा न रखने पर भी यह जड पदार्थ जैसे वस्त्र, मकान, धन इत्यादि नष्ट होने वाली हमारे बीचमें कैसे टपक पड़ती है, एवं शान्तिकी तीव्र इच्छा चीजोंको अपनी समझ कर उनकी प्राप्ति व रक्षाका सर्वदा करते हुए भी वह कोसों दूर क्यों भागती है तो उसका इच्छुक रहना और चेतनामयी श्रामा जो हमारी पच्ची कारण दूदते देर नहीं लगेगी। सम्पत्ति है-उसे भुला डालना सच्चे दुःखोंका जन्म इन्हीं
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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