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________________ किरण १०] विक्रमी सम्वतकी समस्या [२८७ ब्राहमयोंकी बनी दुर्दशा हुई और वे मरणासन हो गये। अर्थात्-इस बातके जानने के लिये मैं एक उदाहरण एष्टमंगलिकाने तपस्वी पतिको पहिचान लिया और अपने देता हूँ। कुत्तेका माँस खाने वाले ( श्वपाक ) चाण्डालका पुत्रकी भसना की तथा उसे ऋषिसे क्षमा मांगनेके लिये एक पुत्र मातंग नामसे प्रसिद्ध था। उस मातंगको अत्यन्त कहा । मातंग ऋषिका जूठन खाकर माण्डव्य और उसके श्रेष्ठ एवं दुर्लभ यश प्राप्त हुआ था, अनेक क्षत्रिय एवं साथी प्रामण रोग-मुक्त हुए । किन्तु नगरमें सर्वत्र इस ब्राह्मण उसकी सेवा करते थे। विषय - बासनाके क्षय-रूपी अपवादके फैल जानेसे कि वे ब्राह्मण चाण्डालकी जूठन महान मार्गसे देवयान (समाधि मरण )पर प्रारूद होकर खाकर ठीक हुए है, उनका वाराणसीमें रहना कठिन हो वह ब्रह्मलोकमें गया । ब्रह्मलोककी प्राप्तिमें उसकी जाति या गया, अतः वे ब्राह्मण मेज्म (मध्य राष्ट्रमें) चले गये। जन्म बाधक नहीं हुआ। मातंग ऋषि भी घूमता-घामता मेज्म राष्ट्रमें जा पहुंचा। उपरोक्त कथाओं और कथनोंसे प्रकट है कि श्रमणउन ब्राह्मणोंको जब इस बातका पता चला तो उन्होंने उसके परंपरा मूलतः जातिभेद-विरोधिनी थी, कम-से-कम धर्माविरुद्ध वहकि राजाको भड़का दिया। राजाने अपने सिपा- चरण एवं धर्म-फल-प्राप्तिमें वह जाति और कुलको बाधक हियों द्वारा मातंगका वध करवा दिया, राजाके इस कुकर्मसे नहीं मानती थी। उसके अनुसार निम्नतम कोटिका मनुष्य देवता बड़े कुपित हुए और उन्होंने उस राष्ट्रको उजाड़ भी सन्मार्गका अनुसरण करके उच्चातिउच्च पद प्राप्त कर दिया। इस घटनाके उल्लेख अन्य कई जातकों में भी पाये सकता था। वह न केवल मृत्युके उपगन्त देवत्व ही नहीं बताये जाते हैं। मातंग-देहज मातंग ऋषिकी पूजा ब्राह्मण प्राप्त कर सकता था, वरन् इस जीवन में भी लोक-प्रतिष्ठा, तथा क्षत्रिय भी करते थे। उसे विषय-कषायों पर विजय पाने- पूजा और सत्कार प्राप्त कर लेता था। के कारण देवत्व प्राप्त हुआ था, यह बात बौद्धोंके 'वंसल- ऐसा प्रतीत होता है कि श्रमण-परम्परामें महावीर और सुत्त' की निम्नलिखित गाथाओंसे भी प्रकट है बुद्धके जन्मके बहुत पूर्वसे ही चाण्डालोंसे सम्बन्धित इस तदमिनापि जानाथ यथा मेद निदस्सन । प्रकार कुछ अनुश्र तियाँ प्रचलित थीं, कालान्तरमें उनमें और चण्डालपुत्तो सोपाको मातंगो इति विम्सुतो॥ भी वृद्धि हुई होगी। पूर्वोक्त श्लोकमें स्वामी समन्तभद्र सो यस परमं पत्तो मातंगो ये सुदुल्लभं । द्वारा 'मातंग' शब्दका प्रयोग सामान्यसे कुछ अधिक महत्व आगच्छु तस्सुपट्टानं खत्तिया ब्राह्मणा बहू ॥ रखता प्रतीत होता है । क्या आश्चर्य है जो उन श्लोककी देवयान अभिरुयह विरजं सो महापथं, रचना करते समय उनके ध्यानमें सम्यग्दृष्टि एवं तपस्वी कायरागं विराजत्वा ब्रह्मलोक पगोत्रह। चाण्डाल कुलोत्पन गृहस्थों और साधुओंसे सम्बन्धित कुछ ननं जाति निवारेसि ब्रह्मलोकू पपत्तिया॥ ऐसी ही अनुश्रुतियाँ भी रही हों। विक्रमी सम्वत् की समस्या (प्रो० पुष्यमित्र जैन, आगरा) विक्रमी सम्वतके सम्बन्धमें विद्वानोंमें मतभेद है। श्री दिसम्बर 11 वाल्यूम • नम्बर २ के जनरलमें ऑनराखालदास बनर्जीके अनुसार इस सम्वत्का प्रवर्तक नह- रेरी सदस्य डब्ल्यू किंग्स मिल तथा रायल एसियाटिक पान है, तथा पनीरके अनुसार इसका श्रेय कनिष्कको है। सोसाइटीके वाइस प्रेसीडेन्ट चापनाने एक विस्तारपूर्वक लेख जनरल रायल एसियाटिक सोसाइटी १६१४ पृष्ठ १७५ प्रकाशित किया है, उन्होंने कुशान-वंशीय महाराज कनिष्कपर सर जान मार्शल और रेप्सनने यह सिद्ध करनेका प्रयत्न को ही विक्रमादित्य निश्चित किया है। इस राजाके लेख किया है कि विक्रम सम्वत्का प्रवर्तक अजेस है । किन्तु मथराके कंकाली टोलेसे प्राप्त जैन मूर्तियों पर पाये गये हैं स्टेनकोनो विचारमें इसका श्रेय उज्जयिनीके विक्रमादित्य- जिनसे सिद्ध होता है कि विक्रमादित्य जैन था। बाबू परको है। श्री काशीप्रसाद जायसवालके मतानुसार गौतमी- मेशचन्द्र बन्ध्योपाध्याय, एम० ए.बी. एल. सब जजने पुत्र शतकी ही विक्रम सम्वत्का प्रवर्तक है। भी इसी किरणमें 'विक्रम सम्वत्' शीर्षक लेख प्रकाशित किया इस सम्वत्के निर्णयार्थ बंगाल एसियाटिक सोसाइटीकी था। उसके पढ़नेसे भी यही सिद्ध होता है कि प्रचलित
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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