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अनेकान्त
[ वर्ष १४
एयारह संवच्छर-सएसु।
घत्ता-रिसि गुरुदेव पसाए कहिउ असेसुवि चरित्त मई। तहि केवलि चरिउ अमयच्छरेण ।
पउमकित्ति मुणि-पुंगवहो देउ जिणेसह विमलमई ॥ णयणंदी-विरयउ विन्थरेण ।
जइवि विरुद्ध एयं णियाणबंध जिणेद-उवसमए । जो पढइ सुणइ भावइ लिहेइ ।
तहं वि तहय चलण कित्तणं जयउ पउमकित्तिस्स ॥ सो सामय-सुहु अइरे लहेइ ।
रइयं पासपुराणं भमियापुहमी जिणालया दिट्ठा । पत्ता-णयणंदियहो मुणिंदहो कुवलयचंदहोणर-देवा मर वंदहो। एहिय जीविय-मरणे हरिम-विसामो ण पउमस्सा देउ दिणमइ णिम्मलु भवियह मंगल वाया जिणवर इंदहो। सावय-कुलम्मि जम्मो जिणचरणाराहणा कहत्त' च ।
पुत्थ सदसणचरिए पंचणमोक्कार-फल पयासयरे ण्याइ तिगिण जिणवर भवि भवि (महु) होउ पउमस्स ।। माणिक्कथंदि-तविज्जसीमु-णयदिणा रइए गइंद,
णव-मय-णउवाणुइए कत्तियमासे अमावसी दिवसे । परि वित्थरो सुरवरिंद थोत्त' तहा मुर्णिद सहमंडवंत-मुविमोक्व
लिहियं पासपुराण कईण णामं पउमस्स ॥ वासे ठामे गमणमो पयफलं पुणो सयल साहूणामावली इमाण १
, सधिः अष्टादश ॥१८॥ इति पार्श्वनाथचरित्र समाप्त कय वण्णणो संधि दो दहमो सम्मत्तो ॥छ। सधि १२ ५-धम्मपरिक्खा (धर्मपरीक्षा) बुध हरिषेण ४-पासपुराण (पार्श्वनाथपुराणं) पद्मकीर्ति
रचनाकाल सम्बत् १०४४ रचनाकाल स० ६६९
अादि भागः
आदि भागः
मिद्वि-पुरंधिहि कंतु सुद्ध तणु मण-वयणें । चउवीस वि जिणवर सामिय,
भत्तिए जिणु पणवेवि चिंतउ बुह-हरिसेणें ॥ सिव-सुह गामिय पविवि अणुदिणु भावें ।
मणुय-जम्मि बुद्धी किं किज्जइ, पुणकहं भुवण पयास हो,
मणहरु जाइ कव्वु ण रइजइ । पयडमि पास हो जणहो मज्म सहावें ॥3॥
त करत अवियाणिय अारिस, अन्तिम भागः
हामु लहर्हि भड रणि गय-पोरिस ।। अट्ठारह संधिउ इय पुराणु, तेपट्ठिपुराणे महापुराणु ।
च मुह कम्व-विरयणि सयंभुबि, सय तिणि दहोत्तर कडवयाई, णाणाविह छह मुदावयाई ॥
पुष्फयंतु अण्णाणु णिसुभिवि । तेवीसमयई तेवीसयाई, अक्वरई कहमि सविसंमयाई।
निरिण वि जोग्ग जेण तं सीसइ, इउ पत्थु सत्थु गंथह पमाणु फुडु पयडु असमु वि कय पमाणु॥
चउमुह-मुहेथिय ताव सरासइ ।। सुपसिद्ध महापहु णियमधरु ।।
जो सयंभू सो देउ पहाणउ, माथुरहं गच्छिउ पुहमिभरू ।
श्रह कयलोयालोय-वियाणउ । तहो चन्दसेणु णामेण रिसी,
पुफियंतु णवि माणुसु वुखद, वय-संजम णियमइ जाउ किसी ॥
जो सरसइए कयावि ण मुच्चइ॥ तहो सीसु महामइ णियमधारि,
ते एवंविह हउं जडु माणउ, एयवन्तु महामइबम्भचारि ।
तह छन्दालंकार विहूणउ । रिसि माइउसेणु महाणुभाउ,
पार्श्वपुराणकी अन्तिम प्रशस्तिके ये चार पथ कारंजा जिणसेण सीसु सुणु तासु जाउ ॥
भण्डारकी सं० १४७३ की लिखितमें नहीं पाये जाते, प्रतः तहो पुव्व सणेहें पउमकित्ति, उप्पण्णु सीसु जिणु जासु चित्ति । रचनादि सम्बत्को लिए हुए होनेके कारण इस प्रशस्तिको ते जिणवर-सासण-भाविएण,कइ-विरइय जिणसेणहोमएण॥ यहां स्थान दिया गया है। गारवमय-दोस-विवज्जएण, अक्खर-पय-जोडिय लज्जिएण। -लेखकने भूलसे आमेर भण्डारकी प्रतिमें सन्धिकुकहत्तु वि जणे सुकइत्तु होइ, जई सुवणइंभावइ एत्थ लोइ॥ वाक्योंको उक्त चार गाथाओंके उपर दे दिया है जो किसी 'अम्हई कुकइहिं किंपि वुत्तु, खमिएव्वउ सुयणहो तं णिरुत्त ॥ गल्तीका परिणाम जान पड़ता है।