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________________ किरण ११-१२] हिन्दीके नये साहिस्यकी खोज [३३७ रखना छोटी है लेकिन बहुत सुन्दर है। ऐसा मालूम आदिनाथ जहाँ जहाँ विहार करने हैं वहांका वायुमण्डल होता है कि हरचन्द हिन्दीके अच्छे कवि थे तथा अलंकार स्वच्छ बन जाता है। वे मागधी भाषामें अपना पावन उपएवं रस-शास्त्रके पारंगत थे। भगवान् श्रादिनाथके जन्म देश देते हैं जिसको सुनकर सब प्राणी श्रायपके बैर छोड़ कल्याणक पर देवोंने जो उत्सव मनाया था उसका कविने देते हैं। प्रकृति श्रीभगवानके आगमनसे प्रसन्न होकर मानों विस्तारसे वर्णन किया है। केवल अप्सराओं एवं देवियोंके अपनी ६ ऋतुयें एक साथ ले पाती हैं। इसका वर्णन नाच-वर्णनमें ७ सवैया हैं। उनमें से दो पढ़िये कविके शब्दों में पदिये- भुजगप्रयात छंदहाव भाव विभ्रम विलास युत खडग ! खिरै मागधी भाख सबको पियारी। रिषभ गावै गंधार । तजे वैर आजन्म मव देहधारी।। ताल मृदंग किंकिनी कटि पर फ्ले वृक्ष पट रितु तनै गंध भारी। पग नेवज बाजे झनकार। करै म दर्पन मनी निर्मलारी।।८३॥ वीन बांसुरी मुरज खंजरी, चंग उपंग बजै सहनारि। वहै पवन मंद सुगंध सखारी। कोडि सताइस दल बल ऊपर रचै अपछरान–अपार लहै परम सुन्नकंद जिनवंदतारी।। सीसफूल सीसन के ऊपर पग नृपर भूपर सिंगार। करै रत्न भूमी मा देवतारी। केसर कुंकुम अगर अरगजा झर मेघ निर्भर सुगंध कृतारी।४ मलय सुभग ल्याये धनसार। इस प्रकार कविने बहुत ही सुन्दर रीतिसे तथा थोडेसे चलनि हंसनि बालनि चितवन करि शब्दोंमें आदिनाथके पांच कल्याणकोंका वर्णन किया है, रति के रूप किये परिहार । कोडि सताइस दल बल ऊपर अन्तमें वह विनयी बनकर अपनी रचनामें आये हुये दोपोंके रचै अपछरा नचे अपार ॥ लिये क्षमा मांगता है-मरहटी छंदपर्याज्ञान प्राप्त करनेके पश्चात ऋषभदेवका वर्णन मो मति अति हीनी नहीं प्रवीनी जिन गन महा महंत करते हुये कविने लिखा है अति भक्ति भावने हिये चावने नहिं जस हेत कहंत ॥ जाकी वपु कानि दशा दिम भांति सबके भानन की गुन जानन को मी मन सदा रहंत । महा सुख शांति धरन जगक। जिनधर्म प्रकासन भव-भव पावन जन हरचद चहंत ॥ जाको वपु तेजु हरै र र रवि सेजु दोहादर दुग्व जे जु करम ठगके। अब सज्जन बुद्धिवंत जे तिनमो विनती रह । जाको शुभ दर्श हरै भव पर्श भूल चूक अक्षर अमिल करयो मुद्ध सनेह ॥११४।। __ करै शिव शर्श सरम लगके। क्रमशः जाको गुन ज्ञान धरै मुनि ध्यान (श्री दि. जैन अ. क्षेत्र श्रीमहावीरजीक अनुसंधान करै कल्याण परम मगके ।। ७६ ।। विभागकी औरमे) क्षण विनश्वरता मनत्कुमार चक्रवर्ती अपने युगका सर्वश्रेष्ठ सुन्दर पुरुप था। इन्द्रने अपनी ममामें उसके सौन्दर्यकी बड़ी प्रशंसा की। दो देवोंको भूमगोचरी के शरीर सौन्दर्य पर सन्देह हुआ। वे विप्रका रूप बनाकर सनत्कुमारके रूप मौन्दर्यको देखने के लिये चल पड़े। व्यायामशालामें धूल-धूपरित चक्रवर्तीक शरीरको देखकर देव चकित रह गये। उन्हें इस प्रकार देखकर चक्रवर्तीने कहा-विप्रवर ! सुन्दरताका पूर्ण अवलोकन राज्य मिहामन पर करना। थोड़ी देर बाद देव राज्य-सभामें पहुंचे, वहां देवोंको उनके शरीर सौन्दर्यमें पहले की अपेक्षा कमी मालूम हुई। वे बोले-स्वामिन् ! वह व्यायामशालाका सौन्दर्य अब नहीं रहा-उसका अपेक्षाकृत हाम हो चुका है। यह सुनते ही चक्रवतीको समारसे वैराग्य हो गया। ये सुन्दर जीवनकी कलियां, नित क्षण-क्षणमें मुरझाती हैं। तुम इन पर क्या इठलाते हो, ये मुरझानेको पाती है।
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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