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________________ जैन-ग्रंथ-प्रशस्ति-संग्रह इय णेमिणाहचरिए अबुह-का-रयण-सुअ-लक्खम- गोयम-एवें जा कहिय सेणियस्स सुह-दायणि । णेण विरइए भन्वयण-जणमणाणंदो सावय-वय-वएणणो जा बुहयण-चिंतामणिय धम्मारमह तरंगिण ॥२॥ णाम चउत्यो परिच्छेश्रो समत्तो ॥ संधि ४॥ महिवीढ पहाणउ गुण-वरिट्ट, पंचायती मंदिर शास्त्रभंडार दिल्ली, लिपि सं १५६२ सुरह वि मण-विभउ जणइ सुह । ३३-अमरसेन चरिउ (अमरसेन चरित) वर तिरिण-साल-मंडिउ पवित्त, कवि माणिक्कराज, रचनाकाल सं० १५७६ णंदह पंडिउ मुर पार पत्तु । आदिभाग-प्रथम पृष्ठ नहीं महियासु वि णामें चणिउ इटु, ए सयलवि तिन्थंकर कुलहोसहिधर ते सव पणविवि पुमिवर अरियर जणाह हिय-मल्नु कछु । पुणु अरुह सुवाणी ति जय पहाणी, णिय मणि धरि वि कुमइ-हर जहि सहाई णिरंतर जिग-णिकेय, पुणु गोयमुगाहरु णमउ शाणि, पंडुर-सुवरण-धय-सुह-ममेय ॥ जे अक्खिउ सम्मइ-जिण वाणि। सट्ठाल म-तोरण जत्थ हम्म, पुणु जेण पयन्थइ भासियाई, मण मुह मंदायए णं सुकम्म । भव-उबहि-नरण-पोयण-सुदाई ॥ चउहर-वस्तर दाम जन्थ, पुणु तासु घणुका मि मुवि पहाणु, वणिवर यवदहि वि जहिं पयस्थ ॥ मिाय चयणन्थ तम्मउ सुजाणु । मग्गण-गण-कोलाहल समन्थ, हुय बहु सद्दश्यह-मुइ-णिहाणु, जहिं जण णिसहि पुण्ण प्रत्थ | जिंइ दुद्धरु णिज्जिय-पंचवाणु । जहिं श्रावगाम्मि थिय विवह भंड, विएणाय-कलालय-पारुपत्त, कमवडिक्सयहि भम्मखंड॥ उद्धरिय भन्न जे सम-विसत्त । संतइय ताह मुणि गच्छणाहु, जहिं चमह महायण सुन्छ-बोह, णिचंचिय पूया-दाण-सोह। गय-राय-दोस मंजइय साहु॥ जहि वियरहिं वर चउ वरण लोय, जे ईरिय गंथह कइ-पवीणु, पुण्णेण पयामिय दिव-भोय ॥ णियमाणे "रमप्पयह लीणु । ववहार चाग संपुण्णव, तव-तेय गियत्तणु कियउ बाणु, जहिं गत्त वसण-मय-हीण भव्य । गिरि-खकित्ति-पट्ट िपत्रीणु । सिरि हेगकत्ति जि हुयउ धामु, मोवरण-चूढ मडिय-विसेम, सिंगार-भार-किय-णिरविसेम ॥ तहुं पट्टधि-कुमर वि सेणु णामु । णिग्गंथु दयालउ जइ-वरितु, सोहग्ग-णिजय जिणधम्म-सील, जि कहिउ जिणागम-भेउ सुट्ठ॥ जहिं मामिण-माण-महग्य-लील । तहु पट्ट-णिविट्ठउ बुह-पहाणु जहिं चार-चाड-कुसुमाल दुछ, मिरिहेमचंदु मय-तिमिर-भाणु । दुज्जण स-खुद खल पिसुण धिट्ठ तं पट्टि धुरंधर वय-पवीणु, रावि दीपहि कहि महि दुहिय-होगु, वर पोमणंदि जो तबहिं खीणु ॥ पेमाणुरत्त सन्च जि पवीणु । तं पणविवि शियगुरु सील वाणि, जहि रहहि य-पय दलिय मग्गु, णिग्गंधु दयान उ अमिय वाणि । नंबोल-रंग-रंगिय-धरग्गु ॥ पुणु पतणमि कह सवणाहिराम, सुहलच्छि जमायरु णं रयणायरु बुहयण गुड णं इंदउरु । आयएगहु जा सहस्थ-राम || सस्थत्यहिं सोहिउ जण-मण-मोहिउ यं वरणय रह एहु गुरु ॥
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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