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________________ ऋषभदेव और महादेव जिम प्रकार जैनियोंके चौबीस तीर्थंकरों में ऋषभ- धवलामें तीन गाथाए उद्धृत की हैं, जिनमें से देवका प्रथम स्थान है, उमी प्रकार हिन्दुओंमें भी दूसरीमें त्रिलोचनधारीके रूपमें और तीमरी में त्रिशूल. महादेवको आदिदेव माना गया है। ऋपभदेव और धारी महादेवके रूप में अरिहन्तांका स्मरण किया महादेवसे सम्बन्धित कुछ खास बातों पर विचार गया है। वे दोनों गाथाएँ इस प्रकार हैंकरते हैं तो ऐमा प्रतीत होता है कि मल में दानाको दलियमयणप्पयावा तिकालविसएहि तीहि ण यणहि । एक ही माननेक कुछ खास कारण इस प्रकार हैं- दिट्ठपयलठसारा सुदन्द्वतिउरा मुणिव्यहो ॥२॥ १-ऋपभदेवका चरण-चिन्ह बैल है और तिरयण तिसूल धारिय मोहंधासुर-कबंध विद्रहरा। महादेवका वाहन भी बल ही माना जाता है। सिद्धमयलप्परूवा अरिहंता दुरणय-कर्यता ।।३। २-ऋपभदेवका निर्वागा कैलास पर्वतसे माना महादेव के विपयमें ऐ० प्रसिद्धि है कि उन्होंने जाता है और महादवको भी कैलासवासी ही कहा कामको भम्म किया था, वे तीन नत्रांक धारक थे जाता है। और त्रिपुरामुरके तीनों नगगंको जलाया था। इन माना जाता है और तीनों ही मान्यताओंको गाथाकारने अहिन्तक ऊपर ऋपभदेव भी रत्नत्रयधारक थे। घटाया ह कि वस्तुनः उन्होंने ही कामकं प्रतापका उक्त तीन बड़ी समताकि होने पर भी अभी दलन किया है और उन्हांन ही जन्म - जरा-मरणतक कोई ऐसी मति नहीं उपलब्ध हो सकी थी. रूप या राग-द्वप-माहरूप तीन नगरांका भम्म किया जिससे कि उक्त मान्यताको प्रामाणिक माना जा है और उन्होंने ही अपने तीनों नेत्रांस तीनों कालासकता । अभी कुछ दिनों पूर्व मुझे अपने बगीचक का सर्व बातांका साक्षात्कार किया है । महादेवक कंटीली झाड़ियों और वांभियान व्यान टीलकी विषयमें एक दूसरी प्रसिद्धि यह है कि उन्होंने खुदाई करते हुए एक एमी सुन्दर और प्राचीन मूर्ति त्रिशूलक द्वारा अन्धकासुरका बध किया था और उपलब्ध हई है, जिससे कि ऋषभदेव और महादेवक इसी बातक यातनाथ वे उसके कपालको धारण एक मानने में कोई मन्देह नहीं रह जाता है। मूर्ति करते हैं दुनरी गाथामें महादेवकै इमी म्पको देशी पापाग पर उकाग है जिनकी लन्याई २ फट गाथाकारने इस प्रकारसे वर्णन किया है कि रत्नत्रयऔर चौडाइ १।। फुट है। उनके मध्य में एक फुट रूप त्रिशूलको धारण करके जिन्होंने माहरूप अन्धऊँची ध्यान मद्रायुक्त पद्मामन मनि है । मनिक कासुरका शिर काट डाला है और जो दुर्न यो मिथ्यादाहिनी ओर एक त्रिशुल अंकित है, जिसकी ऊँचाई मतकि लिये कृतान्त-यम-स्वरूप हैं ऐसे आत्मस्वरूप मृतिके कानों तक है । वायीं और इतनी ही ऊँचाई के सिद्ध करनेवाले अरिहन्त होते हैं। पर दण्डके ऊपर एक नर-कपाल अवस्थित है। उक्त दोनों गाथाओंकी प्राचीनता इमासे मिद्ध मृनिके पादपीठके नीचे सामने की ओर मुख किए है कि वे धवलामें उद्धृत की गई हैं। इन गाथाओंसे हुप वेलका मुख अंकित है, जिसके ऊपर दोनों सींग पाठक सहजमें ही इस निष्कर्ष पर पहुँच सकेंगे कि दाई-बाई ओर जाकर अर्धचन्द्राकारमें अवस्थित प्राचीनकालमें अरिहन्त परमेष्ठीको ही महादवक हैं। इस चरण-चिन्हके दाई ओर श्रावक और बाई विभिन्न रूपकोंसे पूजा जाता था। ऊपर जिस उप और श्राविकाकी अर्ध नमस्कार-मुद्रामें एक-एक मूनि लब्ध मूर्तिका जिक्र किया गया है, उसने तो गाथाबनी हुई है। मूनिके शिर परके बाल जटारूपमें ओंकी मान्यताको और भी पुष्ट कर दिया है। इस उत्कीर्ण किये गये हैं। देवगढ़में सहस्रों प्रतिमाएँ अवसर्पिणाकालके आदि अरिहन्त श्री ऋपभदेव ही जटाजूटसे युक्त आज भी उपलब्ध हैं । जटाजूटसे हैं, अतएव महादेवके रूपमें उनकी मान्यता सारे ऊपरका भाग टूटा हुआ है। भारतवर्ष में प्राचीनकालसे चली आ रही है। अरिहन्तोंकी व्याख्या करते हए वीरसेनाचार्यने । -हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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