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धारा और धाराके जैन विद्वान्
(अनेकान्त वर्ष किरण .12 से भाग)
__ (परमानन्द शास्त्री) कविने इस प्रन्थमें जो विविध छनोंका प्रयोग सल्लेखनाके कथन-क्रमको अपनाया गया है। किया है उनमेंसे कुछ छन्दोंके नाम मय पत्राकोंके इससे यह काव्य-ग्रंथ गृहस्थोपयोगी व्रतोंका भी निम्न प्रकार हैं:
विधान करता है इस दृष्टिसे भी इसकी उपयोगिता १ विलासिनी (३२), २ भुजंग प्रिया (२५) ३ कम नहीं है। मंजरो (३०), ४ वंशस्थल ४४), ५ चन्द्रलेखा (५०), ग्रन्थकी आद्य प्रशस्ति इतिहासकी महत्वपूर्ण ६ सिंधुरगति (५८), ७ दोधक (७४), ८ मौक्तिक- सामग्री प्रस्तुत करती है। उसमें कविने ग्रन्थ बनानेमाला (७७), ६ सर्गिणी ८३), १० पदाकुला में प्रेरक हरिसिंह मुनिका उल्लेख करते हुए, अपनेसे (६६), ११ मदनलीला (१८), १२ द्विपदी (१८), पूर्ववर्ती जैन-जनैतर और कुछ सम-सामयिक १३ विद्युन्माला छंद (81), १४ रासाकुलक १०२), विद्वानोंका भी उल्लेख किया है जो ऐतिहासिक १५ कुवलयमालिनी (१०२), १६ तुरगगतिमदन दृष्टिसे महत्वपूर्ण है। उनके नाम इस प्रकार है:(१०३), १० समानिका (११८), १८ रथोद्धता (११६), बररुचि, वामन, कालीदास, कौतुहल, वाण, १६ प्रमाणिका (१७५), २० नागकन्या (१७६), २१ मयूर, जिनसेन, वारायण, (बादरायण) श्रीहर्ष, संगीत गंधर्व (२००), २० शृगार (२००), २३ बाल- राजशेखर, जमचन्द्र, जयरामर, जयदेव३, पालित्त भुजंग ललित (२०१), २४ अजनिका (२५०), (पादलिप्त) पाणिनि, प्रवरसेन, पातंजलि, पिंगल,
- इनके अतिरिक्त, दोहा, पत्ता, गाथा, दुपदी, वीरसेन, सिंहनन्दि, सिद्दभद्र, गुणभद्र, समन्तभद्र, पद्धडिया, चौपई, मदनावतार, भुजंग प्रयात श्रादि अकलंक, रुद्र, गोविन्द, दण्डी, भामह, माघ भरत, अनेक छन्दोंका एक से अधिक वार प्रयोग हुआ है। चउमुह, स्वयंभू, पुष्पदन्त५, श्रीचन्द्र, प्रभाचन्द्र और इससे छन्दशस्त्र की रष्टिसे भी इस ग्रन्थका श्रीकुमार, जिन्हें सरस्वतीकुमार, नामसे उल्लेखित अध्ययन और प्रकाशन जरूरी है।
किया है। जैसाकि ग्रन्थके निम्न वाक्योंसे प्रकट प्रन्थकी भाषा प्रौद है, और वह कविके अपभ्रंश है:भाषाके साधिकारको सूचित करती है । ग्रन्थान्तमें
मग जराण वक्कु वम्मीय वासु, संधि-वाक्य भी पद्यमें निबद्ध किये गए हैं। यथा:
वररुइ नामणु का कालियासु । मुणिवर णयदि सरिण-बद्ध पसिई,
इनमें जिनसेन भादिपुराणके कर्ता हैं। इनका सयल विहि विहाये एत्थे कम्ने सुभच्चे। समय विक्रमकी स्वीं शताब्दी है। यह जयराम आम समवसरणससि सेणिए संपवेसो,
पढ़ते हैं जो प्राकृत 'धर्मपरीक्षा' नामक ग्रंथके कर्ता थे। भणिउ जणमणुज जोएस संधी तिहजो ॥॥ जिनकी कृतिका अनुवाद हरिषेणाने वि०सं०१४ में किया पन्थकी३२वीं संधिमें मद्य-मधुके दोष, उदुबरादि है। यह प्राकृत छन्न-शास्त्राके को मालूम होते है। पंच फलोंके त्यागका विधान और फल बतलाया । यह पलाचार्यक. शिष्य धीरसेन जान पड़ते हैं जिन्होंने गया है। ३३वीं संधि पंच अणुबतोंका कथन पसंदागमादिक सिद्धान्त-ग्रंथोंकी टीकाएँ बनाई हैं। दिया हुआ है।३६वीं सधिमें अणुव्रतोंकी विशेषताएं १चउमह स्वयंभू और पुष्पदन्त ये अपनश भाषाके तीन बतलाईगईहैं और उनमें प्रसिद्ध पुरुषों के प्रा. कवि हैं। श्रीचन्द्र कुछ पूर्ववर्ती एवं सम-सामयिक ख्यान भी यथास्थान दिये गए हैं। ५६वी संधिके हैं। प्रभाचन्द्र और श्रीकुमार नयनन्दीके गुरूभाई अन्तमें सल्लेखना (समाधिमरण)का स्पष्ट विवेचन जान पड़ते हैं। उनमें श्रीकुमारको सरस्वती-कुमार का किया गया है और विधिमें श्राचार्य समन्तभद्रके जाता था इससे वे बड़े भारी विद्वान् ज्ञात होते है।