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________________ ३२१ किरण ११-१२ ] जैनधर्म में सम्प्रदायोंका आविर्भाव नगरी में ही श्वेतपट सबकी उत्पत्ति विक्रम सम्वत् १३६में रस्नकम्बल भेंट दिया। प्राचार्यके मना करने पर भी शिवबतलाई है। भूतिने उसे लेकर छिपा लिया। ज्ञात होने पर गुरुने उसके श्वेताम्बर-साहित्यमें दुर्भिक्षके पश्चात् पाटलीपुत्रमें टुकड़े करके साधुओंको पैर पूछनेके लिये दे दिये। शिवमुनियों के एक सम्मेलनकी चर्चा है. जिसमें ग्यारह अंग भूति बुरा मान गया । एक दिन गुरु जिनकल्पी साधुओंका संकलित किये गये। किन्तु भववाहस्वामीके नेपाल देशमें वर्णन कर रहे थे। उसे सुनकर शिवमूनि बोला-जिनकल्प स्थित होनेसे बार उवां अंग मंकलित नहीं होमका । संघसे ही क्यों नहीं धारण करते , गुर बोल-जम्यू स्वामीके तब दो मुनियोंको महबाहको बलाने के लिये भेजा गया। पश्चात् जिनकल्प विच्छिन्न हो गया। शिवभूति बोलाध्यान रत होनेसे उन्होंने पाना स्वीकार नहीं किया। इस मेरे रहते जिनकल्प विच्छिन्न कैसे हो सकता है। गरुके परसे मुनिसंघ और भद्रबाहक बीचमें कछ खींचातानी भी समझाने पर भी वह नहीं माना और वस्त्र त्यागकर दिगहोगई। इसीसे डा. याकोबीने कल्पमत्रकी प्रस्तावनामें म्बर होगया तथा दो शिष्योंको दीक्षित करक वाटिकमत लिखा है कि पाटलीपुत्रमें जैन संघने जो अग संकलित चलाया। किये वे श्वेताम्बर सम्प्रदाय हए. समस्त जैन संघके नहीं, दोनों सम्प्रदायोंकी उन कथाांका निष्कर्ष इस क्योंकि उस संघमें भद्रबाहु सम्मिलित नहीं हुए। अस्तु, प्रकार हैजो कुछ हो, इतना सुनिश्चित प्रतीत होता है कि श्रतकेवली -दिगम्बरोंका कहना है कि भद्रबाह धनकवलीके भद्रबाहुक समयमें बारह वर्ष भयंकर दुर्भिक्षके कारण कोई समय तक सब जन साधु दिगम्बर ही रहते थे। भद्रबाहुके ऐसी घटना अवश्य घटी जिमने आगे जाकर स्पष्ट संघ-भेद समयमें अशक्क साधुओंको दुर्भिक्षकी कठिनाइयोंकि कारण का रूप लेलिया और अखण्ड जैन संघ दो खण्डोंमें अर्धफालक (वस्त्र-खण्ड) स्वीकार करना पड़ा । भागे विभाजित होगया। चलकर विक्रम राजाकी मृत्युके १२६ वर्ष बाद दम अर्धश्वेताम्बर-परम्परामें भ० महावीरके तीर्थकाल में सात फालक सम्प्रदायसे श्वेताम्बर सम्प्रदायका जन्म हुआ। निहिन माने गये हैं । भागमकी यथार्थ बातको छिपाकर -वेताम्बरोंका कहना है कि जम्बूम्बामीके पश्चात् अन्यथा कथन करनेका नाम निन्हव है। और इस तरहकी। जिनकल्प विच्छिन्न होगया। अर्थात् जम्वृस्वामी नक तो घटनाएँ सम्प्रदायोंके आविर्भावमें कारण होती है। किन्तु जैन साधु दिगम्बर रह सकते थे, दिगम्बर रहना सबक लिये इन निन्हवोंके कारण कोई नया माम्प्रदाय उत्पन्न नहीं हुश्रा अनिवार्य नहीं था। उनके पश्चात् माधुके लिये दिगम्बर और एकके सिवाय शंप सभी निन्हवोंक कर्ता प्राचार्य सम रहना निषिद्ध हो गया। किन्तु वीर निर्वाणक ६.६ वर्ष झानेसे मान गये । स्थानांग मूत्रमें मानों निन्हवोंके नाम, पश्चात् शिवभूति नामके साधुने उसे चलाकर दिगम्बर स्थान और कर्ता प्राचार्योंका निर्देश है । आवश्यक, मतको जन्म दिया। नियुकिमें काल भी दिया है। किन्तु उममें पाठ निन्हवों उन निष्कर्षमें निहित समस्याको मुलझानेके लिये का काल दिया है। भाष्यकारके अनुसार यह पाठवां साधओंके वस्त्र-परिधान अथवा त्यागके सम्बन्धमें विचार निन्हव बोटिकमन या दिगम्बर मत है. जो वीर निर्वाणके करना आवश्यक है । श्वेताम्बर भागोंके अवलोकनसे ६०६ (वि० सं० १३६) वर्ष पश्चात प्रगट हुआ। ऐसा प्रतीत होता है कि भ० महावीरने पार्श्वनाथके धर्ममें इस पाठवें निन्हव दिगम्बर मतको जन्म देने वाला कुछ सुधार किये थे। भगवती सूत्रमें कलम बेसीयपुत्त जो शिवभूति नामका एक श्रावारा राज-सेवक था जो घरसे पार्वापन्येय था और महावीरके शिष्य में विवाद होने की चर्चा झगड़ कर आर्य कृष्ण नामक प्राचार्यक पाद-मूलमें स्वयं है। अन्तमें कलस प्रार्थना करता है कि मैं तुम्हारे पासमें ही दीलित होकर साधु बन गया। एक बार राजाने उसे चातुर्याम धर्मसे पंच महावत रूप सपतिक्रमण धर्मकी दीक्षा लेकर विहार करूँगा। अर्थात् पार्श्वनाथके धर्ममें चार यम 1-छब्बाससयाई नवुत्तराई तइया सिद्धिं गयम्स वीरस्स । तो वोडियाण दिट्टी रहवीरपुरे समुप्पण्णा ।।२५५०।। 'तुझं अंतिए चानुज्जामातो धम्मातो पंचमहब्वियं -विशे० भा० सपदिक्कमनं धम्म उवसंपज्जिता विहरित्तए ।
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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