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________________ २६० ] नगरीके चारों ओर आयुकर्मका भारी प्राकार है, उसमें सुख-दुःख, सुधा, तृषा, हर्ष, शोकादिरूप अनेक प्रकारकी नाड़ियाँ एवं मार्ग हैं। उस काया नगरीमें जीवात्मा नामक राजा अपनी बुद्धि नामकी पत्नीके साथ राज्य करता है । उसका प्रधानमंत्री मन है. और स्पर्शनादि पांचों इन्द्रियाँ प्रधान राजपुरुष हैं। एक राजसभा में परम्परमें विवाद उत्पन्न हो गया, तब मनने जीवोंके दुःखोंका मूल कारण अज्ञान बतलाया, किन्तु राजाने उसी मनको दु खका मूल कारण बतलाते हुए उसकी तीव्र भामना की, पर विवाद बढ़ता ही चला गया। उन पांचों प्रधान राज पुरुषोंकी निरंकुशता और अहंमन्यताकी भी आलोचना हुई और प्रधान मंत्री । मनने इन्द्रियोंको दोषी बतलाते हुए कहा कि जब एक-एक इन्द्रियकी निरंकुशतासे व्यक्तिका विनाश हो जाता है, तब जिसकी पांचों ही इन्द्रियों निरंकुश हों, फिर उसकी फेम कुशन कैसे हो सकती है ? जिन्हें जन्म कुलादिका विचार किये बिना ही भृत्य (नौकर) बना लिया जाता है तो वे दुःख ही देते हैं। उनके कुलादिका विचार होने पर इन्द्रियोंने कहा- हे प्रभु! चित्तवृत्ति नामकी महाघवी महामोह नामका एक राजा है उसकी महामूढा नामक पत्नीके दो पुत्र हैं, उनमें एकका नाम रामकेशरी है जो राजस चिसपुरका स्वामी है और दूसरा द्वेष गयंद नामका है, जो तामस चित्तपुरका श्रधिपति है । उसका मिथ्यादर्शन नामका एक प्रधानमंत्री है। क्रोध, लोभ, मत्सर, काम, मद आदि उसके सुभट हैं। एक बार उसके प्रधानमंत्री मिथ्यादर्शनने कर कहा कि हे राजन! बड़ा आश्चर्य है कि आपके प्रजाजनोंको चारित्र्य धर्म नामक राजाका संतोष नामक पर, विवेकगिरि पर स्थित जैनपुर में ले जाता है। तब मोहराजाने सहायता के लिये इंद्रियाँको नियुक्र किया। इस तरह कविने एक रूपकके अन्तर्गत दूसरे रूपकका कथन देते हुए उसे और भी अधिक सरस बनानेकी चेष्टा की है । किन्तु मन द्वारा इन्द्रियोंको दोषी बतलाने पर इन्दियों ने भी अपने दोषका परिहार करते हुए मनको दोषी बत ॐ इय विषय पलकयो, अनेकान्त इहु एक्के कुदिजगडइ जगसयलु । जेसु पंचवि एयई कवबहु खेयई, खिल्लद्दि पहु! तसु क कुसलु ॥ २६॥ [ वर्ष १४ लाया और कहा कि जीव जो रागद्वेष प्रकट होते हैं वह सब मोहका ही माहात्म्य है। क्योंकि मनके निरोध करने पर हमारा (इन्द्रियोंका व्यापार स्वयं रुक जाता है | इस तरह प्रथमें क्रमसे कभी इन्द्रियों को, कभी कर्मोंको और कभी कामवासनाको दुःखका कारण बतलाया गया है। जब वाद-विवाद बढ़कर अपनी चरम सीमा पर पहुँच गया तब आत्मा अपनी स्वानुभूतिसे उन्हें शान्त रहनेका उपदेश देता है। अन्तमें मानव जीवन की दुर्लभताका प्रतिपादन करते हुए तथा जीवदया और तक अनुष्ठानका उपदेश देते हुए कथानक समाप्त किया गया है। * जंतसु फुरइ रागो दोमा वा तं मरणास माहप्पे | विरमइ मम्मि रुद्धे जम्हा अम्हाण वावारो ||४६ मयण पराजय मदन पराजय एक छोटासा अपभ्रंश भाषाका रूपक-काव्य है, जो दो संधियों में समाप्त हुआ है। इसके कर्ता कवि हरदेव हैं। हरदेवने अपनेको बंगदेवका तृतीय पुत्र और साथ ही अपने दो ज्येष्ठ भाइयोंके नाम किंकर और कराह (कृष्ण) बतलाये हैं। इसके अतिरि प्रथमें कपिने अपना कोई अन्य परिचय एवं समयादिककी कोई सूचना नहीं की। इस प्रथ में पड़िया के अतिरिक्त रद्दा छन्दका भी प्रयोग किया गया है । जो इस ग्रन्थकी अपनी विशेषता है । यह एक मनोमोहक रूपक काव्य है, जिसमें कामदेव राजा, मोहमंत्री, अहंकार और अज्ञान आदि सेनापतियोंके साथ भावनगर में राज्य करता है। परिपुरके राजा जिनराज उनके शत्रु हैं; क्योंकि ये मुक्रिरूपी कन्यासे अपना पाणिमय करना चाहते हैं। कामदेवने राग-द्वेष नामके दूध द्वारा जिनराजके पास यह सन्देश भेजा कि आप या तो मुहि कन्यासे विवाह करनेका अपना विचार छोड़ दें और अपने दर्शन - ज्ञान- चारित्ररूप सुभटोंको मुझे सोंप दें, अन्यथा युद्धके लिये तैयार हो जय जिनराजने कामदेवसे युद्ध करना स्वीकार किया और अन्तमें कामदेवको पराजित कर अपना मनोरथ पूर्ण किया। I ग्रन्थ में रचनाकाल दिया हुआ नहीं है। किन्तु धामेरभण्डारको यह प्रति विक्रम संवत १५०६ की लिखी हुई है जिससे यह स्पष्ट है कि यह ग्रन्थ उससे पूर्वका बना हुआ है। किन्तु भाषाकी दृष्टिसे इसका रचनाकाल १२वीं शताब्दी जान पड़ता है। अन्यकी शैली परिज्ञानके लिये
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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