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वर्ष १४ ]
डॉक्टर सतीशचन्द्र विद्याभूषणने, अपनी 'हिस्टरी आदि मिडियावल स्कूल आफ इंडियन लॉजिक' में यह अनुमान प्रकट किया था कि समन्तभद्र ईसवी सन ६०० के लगभग हुए हैं । परन्तु आपके इस अनुमानका क्या आधार है अथवा किन युक्तियों के बल पर आप ऐसा अनुमान करनेके लिये बाध्य हुए हैं, यह कुछ भी सूचित नहीं किया । हाँ, इससे पहले इतना जरूर सूचित किया है कि समन्तभद्रका उल्लेख हिन्दू तत्त्ववेत्ता 'कुमारिल'ने भी किया है और उसके लिये डॉ० भाण्डारकरकी संस्कृत ग्रन्थोंके अनुसन्धान-विषयक उस रिपोर्टके पृ० ११८ को देखने की प्रेरणा की है जिसका उल्लेख इस लेख के शुरू में एक फुटनोट-द्वारा किया जा चुका है। साथ ही, यह प्रकट किया है कि 'कुमारिल बद्ध तार्किक विद्वान् 'धर्मकीर्ति का समकालीन था और उसका जीवन काल आम तौर पर ईसाकी ७वीं शताब्दी ( ६३५ से ६५० ) माना गया है । शायद इतने परसे हो - कुमारिलके ग्रन्थ में समन्तभद्रका उल्लेख मिल जाने मात्रसे ही आपने समन्तभद्रको कुमारिलसे कुछ ही पहलेका अथवा प्रायः समकालीन विद्वान् मान लिया है, जो किसी तरह भी युक्ति-संगत प्रतीत नहीं होता । कुमारिलने अपने श्लोकवार्तिक, कलंकदेवके 'अष्टशती' ग्रन्थपर उसके 'आज्ञाप्रधानाहि " ." इत्यादि वाक्योंको लेकर कुछ कटाक्ष किये हैं जिससे अकलंक के 'ती' प्रथका कुमारिलके सामने मौजूद होना पाया जाता है । और यह अष्टशती ग्रन्थ समन्तभद्रके 'देवागम' स्तोत्रका भाष्य है, जो समन्तभद्रसे कई शताब्दी बादका बना हुआ है। इससे विद्याभूपणजीक अनुमानकी निःसारता सहज ही व्यक्त हो जाती है।
इन दोनों विद्वानोंके अनुमानोंके सिवाय पं० सुखलालजीका 'ज्ञानबिन्दु' की परिचयात्मक प्रस्तावनामें समन्तभद्रको विना किसी हेतुके ही पूज्यपाद ( विक्रम छठी शताब्दी) का उत्तरवर्ती बतलाना और भी अधिक निःसारताको लिये हुए हैं-वे
समन्तभद्रका समय निर्णय
* देखा, प्रोफेसर के० बी० पाठकका 'दिगम्बर जैनसाहित्य में कुमारिलका स्थान' नामक निबन्ध |
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पूज्यपादके 'जैनेन्द्र' व्याकरण में 'चतुष्टयं समन्तभद्रस्य और 'वेत्तेः सिद्धसेनस्य' इन दो सूत्रोंके द्वारा समन्तभद्र और सिद्धसेनके उल्लेखको जानते- मानते हुए भी सिद्धसेनको तो एक सूत्रके आधार पर पूज्यपादका पूर्ववर्ती बतला देते हैं परन्तु दूसरे सूत्रके प्रति गज-निमीलन जैसा व्यवहार करके उसे देखते हुए भी अनदेखा कर जाते हैं और समन्तभद्रको यों ही चलती क़लमसे पूज्यपादका उत्तरवर्ती कह डालते हैं। साथ ही, इस बातको भी भुला जाते हैं कि सन्मतिकी प्रस्तावना में वे पूज्यपादको समन्तभद्रका उत्तरवर्ती बतला आए हैं और यह लिख आए हैं कि 'स्तुतिकाररूपमें प्रसिद्ध इन दोनों श्रचायका उल्लेख पूज्यपादने अपने व्याकरणके उक्त सूत्रोंमें किया है उनका कोई भी प्रकारका प्रभाव पूज्यपादकी कृतियों पर होना चाहिये' जो कि उनके उक्त उत्तरवर्ती कथनके विरुद्ध पड़ता है। उनके इस उत्तरवर्ती कथनका विशेष ऊहापोह एवं उसकी निःसारताका व्यक्तीकरण 'सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन' नामक २७वें निबन्ध के 'सिद्धसेनका समयादिक प्रकरण' ( पृ० ५४३-५६६ ) में किया गया है और उसमें तथा 'सिद्धसेनका सम्प्रदाय और गुणकीर्तन' नामक प्रकरण ( पृ० ५६६ - ८५ ) में यह भी स्पष्ट करके बतलाया गया है कि समन्तभद्र न्यायावतार और सन्मति - सूत्रके कर्ता सिद्धसेनोंसे ही नहीं, किन्तु प्रथमादि द्वात्रिंशिकाओं के कर्त्ता सिद्धसेनोंस भी पहले हुए हैं। 'स्वयम्भू स्तुति' नाम की द्वात्रिंशिका में सिद्धसेनने 'अनेन सर्वज्ञपरीक्षणमास्त्वयि प्रसादोदयसोत्सवाः स्थिताः जैसे वाक्योंके द्वारा सर्वज्ञपरीक्षकके रूपमें स्वयं समन्तभद्रका स्मरण किया है और अन्तिम पथमें तब गुणकथोरका वयमपि जैसे वाक्योंका साथमें प्रयोग करके वीरस्तुतिके रचनेमें समन्तभद्रके अनुकरणकी साफ सूचना भी की है-लिखा है कि इस सर्वज्ञद्वारकी परीक्षा करके हम भी आपकी गुणकथा करने में उत्सुक हुए हैं।
समयका अन्यथा प्रतिपादन करनेवाले विद्वानोंविक्रमकी दूसरी अथवा ईसाकी पहली शताब्दीका के अनुमानादिककी ऐसी स्थिति में समन्तभद्रका समय और भी अधिक निर्णीत और निर्विवाद जाता है। - जुगलकिशार मुख्तार