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________________ १३८] अनेकान्त [ वर्ष १४ मतके माननेके बाद यहां आये हैं। इमलिये हम लोग किसी बन्धुत्व भावको स्थापित करना ही जैनमुनियोंका मुख्य भी मतमें रहें प्राचीन कालके समान दनियाके नेता विश्वके मिद्वान्त था । इसलिये हर स्थल पर धर्मके विषयमें जोर प्रथम गुरु, संसारके प्रथम उपदेशक, जगतके प्रथम मुनि, दिया गया है। केवल साहित्यमें ही नहीं लिखा, वरन विश्वके प्रथम सिद्धरूप ऋषभदे के दर्शनार्थ श्रमणगिरि चट्टानों और पहाड़ोंमें भी 'धर्मका पालन करो, धर्मके सिवाय चलें। चाहे शैव हों, चाहे वैष्णव हों, चाहे बौद्ध हों, चाहे और कोई सहारा नहीं है' ऐमा अंकित किया हुआ है। सिक्ख हो, चाहे चाहे ईसाई हों, चाहे मुसलमान हों और जीवकचिन्तामणिक रचयित श्रीतिरुनकदेवने अपने कोई किसी भी सिद्धान्तका मानने वाला क्यों न हो, सब अन्यकी समाप्तिमें कहा है कि चाहे कोई मत हो, चाहे कोई लोग मिलकर उस आदि भगवान के दर्शनार्थ चलें। इस देशका हो, सभीको अपने धर्म मार्गपर स्थिर रहना चाहिये। प्रकार महत्वपूर्ण होनेके कारण ही इनकी प्रतिमाओंको भाइयो, धर्म गृहस्थोंके लिये श्रादि भगवान ऋषभपर्वतों, गुफाओं, चट्टानों आदि कई बाहरी स्थानों में स्थापित देवक द्वारा कहा गया है। दुनियां में बन्धुत्व-भावको फैलाने, किया गया है। समन्वभाव रखने, प्रेम और धर्मकी वृद्धि करने, शान्तिको जीवकचिन्तामणिमें गगवान्के समवशरणका वर्णन फैलाने, आर्थिक समस्याको हल करनेके लिये तथा देव, गुरु करते हुए कहा गया है कि 'भगवानके उपदेशामृतको सुनने पाखण्ड मृढताको दूर करनेके लिये उपयुक धर्म ही माय आयो। भगवानके उपदेशामृतको सुनने पायो।' सब लोग दे सकता है । इसलिये सभी लोग मन्-धर्मका पालन करें। एक साथ हर्षसे भगवान्के (दिव्यध्वनि) रूप उपदेशामृतका वीर शामन-संघ, कलकत्ता द्वारा प्रकाशिन 'तामिल' पान करने जाया करते थे। की पुस्तक श्रमणगिरि चलें' का हिन्दी अनुवाद, जो उक्र जनताके चारित्रको बढ़ाकर दुनियामें समता एवं संघले प्रात हुआ, माभार प्रकाशित । विश्व-शांतिके उपायोंके कुछ संकेत (ले०-श्री पं० चैनमुम्बदाम, जयपुर।) भूतकाल में अब तक जितने छोटे और बड़े महायुद्ध और संमारयुद्धोंकी कौन कहे घर और संघर्ष हुए हैं, अब हो रहे हैं और आगे होंगे, उन मुहल्लोंके माधारण मघर्पभी खत्म नहीं होते। सबका कारण है मानव-मनका आग्रह। इस आग्रह इसमें कोई शक नहीं कि आज संसारके प्रत्येक को बल देने वाला उमका स्वार्थ है और उसका राष्टके सामान्य जन युद्ध नहीं, शांति चाहते हैं। मूलाधार है, मनुष्य-मनकी चिरमंगिनी हिंमा। दुनियाँको जनता युद्धके नामसे ही घबड़ा उठती हिंसा स्वार्थ और आग्रह तोनों मिल कर मन है। मंमारके विगत दो महायुद्धांके चित्र जत्र में जो संघर्प उत्पन्न करते हैं उसका परिणाम है लोगोंकी कल्पनामें आते हैं तब उनके मन में भय अशांति। हिंसाका अर्थ केवल बाहरी मार-काट का संचार हए विना नहीं रहता। हिरोशिमा और हो नहीं है, वह तो उस हिंसाका परिणाम है जो नागासाकी अणबम विस्फोट-जिन्होंने सोते खेलते मनुष्यके मनको दृपित किये हुये है। वह है राग, हंसते हुए बच्चे, नर-नारियों एवं पशु-पक्षियोंको द्वेष, परिग्रहकी तृष्णा एवं साम्राज्य-लिप्मा, यही एक साथ क्षण भरमें मृत्युका ग्रास बना दिया थाहिंसा वाक्-कलह, छोटी बड़ी लड़ाइओं और महा- तो याद आतेही मनुष्यके मनमें उत्कंपन पैदा युद्धों तक को जन्म दे देती है। कर देते हैं। जहाँ युद्धोंकी तात्कालिक संभावना मनुष्य अहिसा, दया आदि सदवृत्तियाकी बड़ी होती है वहाँ के नर नारी और बच्चे भयभीत ही बड़ी बातें तो बनाता है, पर सचाई यह है कि उसका सोते हैं और भयभीत ही उठते हैं। युद्धोंकी कल्पना मन साफ नहीं है। मनको बुराइयाँ बाहर आये उनके मन में ज्वर पैदा कर देती है। विना नहीं रहतीं । मन जब तक साफ नहीं हो- जब किसी भी राष्ट्रकी जनता युद्ध नहीं चाहती
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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