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________________ किरण ५] विश्व-शांतिके उपायोंके कुछ संकेत १३६ नब सदाही युद्धोंकी विभीषिका क्यों बनी रहती है खास कर बड़े राष्ट्र अपने जीवनमें न उतारें तब यह एक प्रश्न है और इस प्रश्नका समाधान आज तक युद्ध और महा युद्धोंकी परंपराएं बंद न होगी। के राष्ट्रॉकी म्वार्थ-पूर्ण राजनीति में है। आधुनिक मनुष्य शक्तिका केन्द्र है। यदि वह अपनी शासक जनताको भुलावे में डाले रहते हैं। किसी मंपूर्ण शक्तियोंको युद्धोंके बंद करने में लगा तो युद्ध का दुष्परिणाम उन्हें तो भुगतना नहीं पड़ता। कोई कारण नहीं कि विश्व में शांति न हो। पर वे अपनी शासक शक्तिके कारण आधुनिक भयंकर अभी उसकी शक्ति यद्धोंके विनाशमें नहीं, उनके से भयंकर शस्त्रास्त्रोंसे अपनी और अपने परिजनों निर्माणमें लग रही है । अणुबम और हाइड्रजन की रक्षा करनेकी क्षमता रखते हैं। युद्धके भयंकर बमोंकी रचना ही इसका ज्वलंत उदाहरण है। किन्तु कुफल सामान्य जनताको ही भोगना पड़ते हैं। हिंसाकी चिकित्सा कभी हिंसाके द्वारा नहीं हो जिसके कि हाथमें सीधा शासन-सूत्र नहीं होता। सकती ।चाहे हिंसा, हिंसा पर आंशिक अथवा दि आज किसी भी राष्ट्रकी जनतासे युद्धके लिए अल्प कालिक विजय पाले, पर हिंसा पर स्थायी मत लिए जावें तो उन लोगोंको निराश ही होना विजय तो अहिंसा ही प्राप्त कर सकती है। एक चपत पड़गा जो युद्धके समर्थक हैं। का जनाव कभी दो चपत नहीं हो सकता । अन्यथा यद्यपि इस समय चारों ओर विश्वशांतिकी चपतोंकी परंपराएँ चलेगी और दोके जबाबमें आवाजें आरही है और सभी इमकी आवश्यकता चार और चारके जबावमें आठ आवेंगे। रक्तका अनुभव करत हैं, पर अभी मिस्र और हंगरी में से दृपित वस्त्र कभी रक्तसे शुद्ध नहीं हो सकता। जो रक्तपात हुआ, क्या वह आकस्मिक घटना है। हिंसा आग्रह पैदा करती हैं और आग्रह विग्रहों जिन लोगोंके मनमें घोर हिंसा नाच रही है और को जन्म देते हैं। मनुष्य के मन में इस समय जो इसी कारण जो आग्रहके पुतले बने हुए हैं वे दूसरे हिंसा समाई हुई है उसकी उपमा भूतकाल के युद्धों राष्ट्रोंकी जनताके कीमती जीवनको क्या उसी में भी नहीं मिलती। आधुनिक भौतिक यंत्रों के निगाहसे देखते हैं जिस निगारसे अपने आपको। कारण मनुष्य हिंसा की पराकाष्ठा को पहुँच जाना 'लीग आव नेशनल' और फिर इसके ममाप्त होने चाहता है और इस घोर पाप को करते हुए उसे पर बनी हुई यू० एन० ओ० सचमुच अच्छे उद्देश्यों शर्म भी नहीं है । क्या जापान के नगरों पर अणुको लकर निर्मित हुए थे, पर ये युद्धाको समाप्त बम पटक कर लाखों मनुष्यों का संहार करने वाले करने में कितने सफल हुए यह सब कोई जानता है। लोगोंने कभी अपने कुकृत्यों पर पश्चाताप प्रकट इसका अर्थ यह नहीं है कि यू० एन० अंक जैसी किया ? इस समय मनुष्यमें जो पशुता आई है वह महान् संस्थाओं के अस्तित्व का आज कोई उपयोग इतनी नृशस, घातक और क्रूर है कि दुनियांक सारे नहीं है। इनकी वस्तुतः अत्यन्त आवश्यकता है; पर शेर चीते, भेड़िये और सूअर मिलकर भी उसकी ऐसी संस्थाएँ अपने उद्देश्यों को तभी पूरा कर सकती समता नहीं कर सकते । मनुष्य पागल हो गया है, है जब उनके सदस्यों के मन में मनमा वाचा कर्मणा वह युद्धक नियमोंकी अवहेलना करना भी अपनी अहिंसा उतरे। वे मनुष्यके ही नहीं, पशु पक्षी और नैतिकता समझने लगा है। 0 तक के जीवन का मूल्य समझे। युद्ध कभी अनिवार्य नहीं होते, उन्हें टाला जा मनुष्यकी साम्राज्य-लिप्सा एक बहुत पुरानी सकता है पर वे तभी टल सकते हैं जब मनमें बीमारी है। इस बीमारीकी चिकित्सा मनुष्यको हिंसा, स्वाथे, और आग्रह न हो। अब संसार के अब करनी ही पड़ेगी। राष्ट्रांके सभी पारम्परिक सभी राष्ट्रों को मिलकर यह काम करना है कि वे युद्धीका आदि कारण यही है । पर जब तक भग- कौनसे अमोघ उपाय हैं जिनका अवलंबन करनेसे वान् महावीर और महात्मा बुद्ध आदि महा पुरुपों युद्ध केवल भूतकी वस्तु बन जावे और उसकी की आध्यात्मिक शिक्षाओंको संसारके सभी और विभीषिकासे मानव-मन सदाके लिए आतंक-हीन
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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