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________________ किरण ११-१२] नन्दिसंघ सरस्वतीगच्छ बलात्कारगण [ ३४७ हुए भद्रबाहु के अनन्तर इनका नाम नहीं दिया है। किन्तु देव के गुरु भी थे। इनका समय अजमेर पट्टावली में वि० जिनचन्द्र का नाम दिया गया है। सोलहवीं शताब्दी के मं० २६ दिया गया है। मध्यवर्ती सूरि श्रीश्र तसागर भी इनके तीन नाम गिनाते ५ पदमनन्दी कुन्दकुन्द-भगवत्पयनन्दी परहैं किन्तु वे इनको प्रथम भद्रबाहु का शिष्य मानते हुए इन्हें नाम कुन्दकुन्द, आचार्य जिनचंद्रके पट्ट पर सुप्रतिष्ठित हुए दशपूर्वघर कहते हैं। इस प्रकार अजमेर पट्टावली इनको थे जो कि पांच नामों के धारक थे। यथाद्वितीय भद्रबाहु का शिष्य और श्री श्रुतसागर प्रथम भद्र ततोऽभवत् पंचसुनामधामा श्रीपयनन्दी मुनिचक्रवर्ती ।।३।। बाहु का शिष्य बतलाते हैं यह यहां पर भेद है । प्राचार्य कुन्दकुन्दाख्यो वक्रग्रीवो महामतिः । ३ श्रा० माघनन्दी-सस्कृत पट्टावली कहती है- एलाचार्यों गृध्रपिच्छ: पद्मनन्दीति तन्नुतिः ॥४॥ श्री मूलसंधेऽज नि नन्दिसंघस्तस्मिन् बलात्कारगणोऽतिरम्यः।। इनका अन्तिम समय वि० सं० ४६ था। पट्टावली नत्राभवत् पूर्वपदांशवेदी श्रीमाघनन्दी नरदेववन्धः ॥२॥ में भी यही समय माना गया है। कितने ही इतिहासअर्थात् मूलमघ मे नन्दिमघ है, उसमें प्रतिरमरणीय वेत्तानों का भी लगभग यही अभिमत है। नन्दिसंघ के बलात्कार गण है, उममे पूर्वपदो के अंगों के वेता श्री पट्टाधीशों ने अपने को कुन्दकुन्दान्वय में होना घोषित माघनन्दी हुए जो कि मनुष्यों और देवों द्वारा बन्दनीय थे। किया है। कई ग्रन्थ-प्रणेतापो ने भी इनको अपनी परम्पग श्रतावतार के कर्ता प्राचार्य इन्द्रनन्दी लिखते हैं कि का महापुरुष मानकर अपना मौभाग्य व्यक्त किया है। अहंबलीके अनन्तर अनगारपुगव माघनन्दी नामके प्राचार्य यहा तक कि वीरप्रभु, गौतमगणी और जैनधर्म की बराहा । वे भी अंगो और पूर्वो के एक देश को प्रकाशित बरी में इनकी गणना की गई है । जो कि निम्न पद्य पर कर ममाधिद्वारा स्वर्ग को चले गये। अजमेर की पट्टावली से मुस्पस्ट हैमे मावनन्दी प्राचार्यका वर्णन तो इस प्रकार पाया है मंगलं भगवान् वीगे मंगलं गौतमो गणी। 'नन्दीशमूने (न) वर्षा योगो घृत. स (ह) माघी (घ) नन्दी, नेन नन्दीम वः स्थापित' । नन्दी वृक्ष के मूल में वर्षा मंगल कुन्दकुन्दार्यों जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ॥१॥ योग धारण किया, इस कारण माघनन्दी कहलाये, उन्होंने भगवत्कुन्दकुन्द चारण ऋद्धि के धारक थे, वे पृथ्वीतल नदीमघकी स्थापना की। परन्तु उसमें पट्ट का प्रारम्भ मे चार अंगुल ऊंचे गमन करते थे और विदेहस्थ सीमन्धर माघनन्दी मे न मानकर भद्रबाहु से माना है और पट्टधरों तीर्थकर की वन्दना के लिए विदेह क्षेत्र गये थे ऐसा भी में भी इनका नाम नहीं गिनाया है। विक्रम प्रबन्ध के जैन वाङ्मय मे देखा जाता है। ज्ञान इनका बहुत ऊंचा कथनानुसार ये एकांग के वेत्ता थे। जैसा कि भद्रबाह के था। अनेक पूर्ण-अपूर्ण प्राभृतोंके ये शाना थे। कम से प्रकरण में कहा गया है। कम पाचवें ज्ञानप्रवाद पूर्वको दशवी बस्तुके दश प्राभृतक के ये परिपूर्ण ज्ञाता तो थे ही। क्योंकि प्रज्झप्पपाहुड पर श्रा० जिनचन्द्र-मंस्कृत पट्टावली में प्राचार्य मे उन्होंने ममयपाहुड या समयसारकी रचना की थी। माघनन्दी के बाद प्रा. जिनचंद्र का नाम उपलब्ध होता यह भी कथानक है कि भगवत्कुन्दकुन्ददेव ने ८४ पाहुडों है। महषिपर्युपासन मे पं० प्रागाधरजी ने भी भगवत की रचना की थी। कालदोप से वे मब इस समय उपलब्ध कुन्दकुन्द के पूर्व में इनका नाम दिया है। श्रुतसागर सूरि ने नही हैं। कुछ उपलब्ध हैं उनके नाम ये हैं-ममयपाहुड या भी यही मार्ग अपनाया है, इन सब मे यही तात्पर्य हामिल ममयसार, पवयगणपाहुड या प्रवचनसार, पंचत्यिपाहुड या होता है कि प्राचार्य जिनचंद्र हुए हैं। पट्टावली का वह पंचास्तिकाय दमण पाहुर, चरित्तपाहुड, सूत्रपाहुड, बोधपाहुड, वाक्य यह है भावपाहड, मोक्खपाहुड, लिंगपाहुड, नियमसार, रयणसार, पट्टे तदीये मुनिमान्यवृत्तो जिनादिचंद्रः समभूदतन्द्र. १ इत्यादि। इनके अलावा बारस अरसुवेक्खा, प्राकृतसिद्ध भक्ति, इस पर मे ज्ञात होता है कि प्राचार्य माघनन्दी के प्राकृत श्रुतभक्ति, प्राकृत चरित्र भक्ति, प्राकृत योगिभक्ति पट्ट पर प्राचार्य जिनचन्द्र हुए थे। जोकि भगवत्कुन्दकुन्द प्राकृत प्राचार्यभक्ति, प्राकृत पंचगुरुभक्ति प्रादि भी इन्ही
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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