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________________ वीरशासन जयन्ती वीरशासन-जयन्तीका पावन दिवस इस वर्ष १२ जुलाई सन् १६५७ शुक्रवारके दिन अवतरित हुआ है । श्रावण कृष्ण प्रतिपदा भारतवषकी एक प्राचीन ऐतिहासिक तिथि है। इस तिथिसे ही भारतवर्ष में बहुत पहलेसे नव वर्षका प्रारम्भ हुआ करता था। नये वर्ष की खुशियाँ मनाई जाती थीं। देशमें सावनी और आषादीके विभागरूप जो फसली साल प्रचलित है वह भी उसी प्राचीन प्रथाका संसूचक जान पड़ता है। जिसकी संख्या आज कल गलतरूपमें प्रचलित हो रही है। इतना ही नहीं किन्तु युगका प्रारम्भ, सुखमा-सुखमादि विभागरूप कालचक्रका अथवा उत्सर्पिणी अपसर्पिणी नामक कालोका प्रारम्भ भी इसी तिथिसे होता है। वीरशासन-दिवसकी झांकी विक्रमकी ५वीं शताब्दीके आचार्य यतिऋषभकी तिलोय. पएणत्तीकी उस गाथासे होती है। जिसमें बतलाया गया है कि श्रावण कृष्णा प्रतिपदाको अभिजित नक्षत्रबालवकरण और रुद्रमुहतमें युगका प्रारम्भ होता है, ये नक्षत्र करण और मुहर्त ही. नक्षत्रों, करणों तथा मुहूर्तोके प्रथम स्थानीय होते हैं इन्हींसे नक्षत्रादिकोंकी गणना प्रारम्भ होती है वह गाथा इस प्रकार है: सावण बहुले पाडिव रुद्दमुहुत्ते सुहोदए रविणो। अभिजस्स पढमजोए जुगस्स आदी इमस्स पुढं ॥ -तिलोयपण्णत्ती १-७० __ इस तिथिकी सबसे बड़ी महत्ता यह है कि उक्त श्रावण कृष्णा प्रतिपदाके पवित्र दिन बाजसे अढाई हजार वर्ष पूर्व विश्वके समस्त जीवोंके द्वारा अभिनन्दनीय, अहिंसाकी पूर्ण प्रतिष्ठाको प्राप्त, पूर्णज्ञानी भगवान महावीरकी दिव्यवाणीका ससारके त्रसित और पीडित जनोंको विपुलाचलके पावन मैदानमें स्थित समवसरण सभामें लाभ हुआ था, उस सभामें मनुष्य और पशु-पक्षियों आदि सभी जीवोंको कल्याण मार्गकी प्राप्ति हुई थी। उनके दुःखोंका अन्त हुआ था-उन्हें अभय मिला था। तब अहिमाकी दुन्दुभा लोकमें विस्तृत हुई थी। "सुख पूर्वक स्वयं जियो और दूसरोंको भी सुख पूर्वक जीन दा के नादसे उस समय विश्व गुजित हुआ था। लोकमें धर्म-मागकी सृष्टि हुई थी। और जनसमूह अपने कर्तव्य अकत्त व्यको समझने लगे थे। स्वार्थ भावनाकी होलोजलाई गई थी। स्व-पहितकी साधनाका मार्ग प्रशस्त हो गया था और जनसमूह दुःखोंसे उन्मुक्त होने लगे थे। इन्ही सब कारणांसे इस वीरशासनकी महत्ता और ऐतिहासिकता प्रसिद्ध है। अतः हमारा कर्तव्य है कि इस दिन हम अपने-अपने नगर, ग्राम और शहरादिमें उत्साहके साथ महोत्सव मनायें, सभाओंकी याजना करें। योग्य विद्वानोंके भाषण करायें और वारशासनकी महत्ताको लोकहदयोंमे अकित करें। .. -परमानन्द जैन निवेदन जिन महानुभावोंको अनेकान्तकी १० किरणें फ्री भेजी गई हैं। और जिन्होंने उसका वापिक मूल्य अभी तक भी नहीं भेजा है, उन्हें आगामी संयुक्त किरण वा पी. से भेजो जावेगो । अतः वे सज्जन इस किरणके पहुँचते ही अपना वाषिक मूल्य छह रुपया मनिडर द्वारा भेजकर अनुगृहीत करें। --मैनेजर 'अनेकांत' वीरसेवामन्दिर, २१ दरियागञ्ज, दिल्ली। दुखद वियोग आरा-निवासी बा० निर्मल कुमारजीको स्वर्गवास हुए अभी कुछ समय भी व्यतीत नहीं होने पाया, कि ता०३ मई को उनकी धर्मनिष्ठा पूज्यनीया माताजीका धम-साधन करते हुए स्वर्गवास हो गया है। बीरसेवामन्दिर-परिवार आपके कुटुम्बी जनोंके साथ इस इष्टवियोग-जन्य दुःखमें समवेदना व्यक्त करता है और दिवंगत आत्माको सुख-शान्ति प्राप्त होने की कामना करता है। शोक-सन्तप्त वीरसेवामन्दिर-परिवार
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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