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________________ वष १४ कविवर ठकुरसी और उनकी कृतिया अभ्यागत या पाहुनेके आजाने पर भी उसे नहीं शत्रुजयकी यात्राके लिये जा रहे हैं । वहाँ नेमिखिलाता था, मुँह छिपाकर रह जाता था। इमीसे जिनेन्द्रकी वन्दना करेंग, जिन्होंने राजमतीको छोड़ पत्नीसे रोजाना कलह होती थी जैसा कि कविकी दिया था। वे कन्दना पूजा कर अपना जन्म सफल निम्न पंक्तियोंसे प्रकट है: करेंगे। जिससे वे पशु और नरगतिमें न जायगे। झूठ कथन नित खाइ लम्बै लेखौ नित झूठौ, किन्तु अमर पद प्राप्त करेंगे । अतः आप भी झूठ सदा महु करै झूठ नहु होइ अपूछौ । चलिये । इस बातको सुनकर कृपणके मस्तकमें सिलमूठी बोले साखि ऋठे झगड़े नित्य उपावै, वट पड़ गई वह बोला कि क्या तू बावली हुई है जहि तर्हि बात विस सि धूतिधनु धरमहि ल्यावै। जो धन ग्वरचनकी तेरी बुद्धि हुई । मैन धन चोरीसे लोभ कौल यौं चेते न चित्ति जो कहि जै सोई खव. नहीं लिया श्रीर न पड़ा हुया पाया, दिन-रात नींद, धनकाज झूठ बोलै कृपणु मनुख जनम लाधो गर्व ॥५ भूख प्यासकी वेदना सही, बड़े दुःखसे उसको प्राप्त कदे न खाइ तंबोलु मरसु भोजनु नहि भक्खै, किया है, अतः खरचनेकी बात अब मुंहसे न कदे न कापड नवा पहिरि काया सुखि रक्खें। निकालना। कदे न सिर में तेलु घालि मलि मूरख न्हावं, तब पत्नी बोली हे नाथ ! लक्ष्मी तो बिजलीके कदे न चंदन चरचे अंगि वीरु लगा। समान चंचला है। जिनके पास अटूट धन और पेषणो कदे देखै नहीं श्रवणु न मुहाई गीत रम, नवनिधि थी, उनके साथ भी धन नहीं गया, केवल घर घरिणि कहे इम कंत स्यों दई काइ दीन्हीं न यसु॥६ जिन्होंने संचय किया उन्होंने उसे पाषाण बनाया, वह देण खाण रखचै न कि दुवै करहिदिनिकाहअति जिन्होंने धर्म-कार्य में खर्च किया उनका जीवन सगी भतीजी भुवा वहिणि भाणिजी न ज्यावे, सफल हआ । इसलिये अवसर नहीं चूकना चाहिए, रहे रुसतो मांडि पापु पोतो जब श्राव। नहीं मालूम किन पुण्य परिणामोंसे अनन्त धन पाहुणो सगो आयो सुणे रहह छिप्पो मुँह राखिकर। मिल जाय। तब कृपण कहता है कि तू इसका भेद जिव जाइ तिवहि परिनीतर यों धनुसंच्या कृपण नर, नहीं जानती, पैसे बिना आज कोई अपना नहीं है। कृपण की पत्नी, जब नगर की दूसरी स्त्रियों धनक बिना राजा हरिश्चन्द्रने अपनी पत्नीको बेचा को अच्छा खाते-पीते और अच्छे वस्त्र पहनते और था। तब पत्नी कहती है कि तुमने दाता और दानकी धर्म-कर्म का साधन करते देखती तो अपने पतिसे महत्ता नहीं समझी। देखो, संसारमें राजा कण भी वैसा ही करने को कहती. इस पर दोनों में और विक्रमादित्यसे दानी राजा हो गये हैं, सूमका कलह हो जाती थी। तब वह सोचती है कि मैने कोई नाम नहीं लेता जो नि.पृह और सन्तोषी है, पूर्वमें ऐसा क्या पाप किया है ? जिससे मुझे ऐसे वह निर्धन होकर भी मुवी है, किन्तु जो धनवान अत्यन्त कृपण पतिका समागम मिला। क्या मैंने होकर भी चाह-दाहमें जलता रहता है वह महा कभी कुदेवकी पूजा की, सुगुरु साधुयोंकी निन्दा दुःग्बी है। मै किसीकी होड़ नहीं करती, पर पुण्यका, कभी झूठ बोला, दया न पाली, रात्रि भोजन कर्ममें धनका लगाना अच्छा ही है। जिसने केवल किया, या नोंकी संख्याका अपलाप किया, मालूम धन मंचय किया, किन्तु म्व-परके उपकारमें नहीं नहीं मेरे किस पापका उदय हुआ मिससे मुझे लगाया वह चेतन होकर भी अचेतन जैसा है जैसे ऐसे कृपणपतिके पाले पड़ना पड़ा. जो न खावे न उसे सर्पने डस लिया हो। खर्च करने दे, निरन्तर लढ़ता ही रहता है। इतना सुनकर कृपण गुम्सेसे भर गया और एक दिन पत्नीने सुना कि गिरनारकी यात्रा उठकर बाहर चला गया। तब रास्ते में उसे एक करनेके लिये संघ जा रहा है। तब उसने रात्रिमें पुराना मित्र मिला । उसने कृपणसे पूछा मित्र ! हाथ जोड़कर हँसते हुए संघयात्राका उल्लेख किया याज तेरा मन म्लान क्यों है ? क्या तुम्हारा धन और कहा कि सब लोग संघके साथ गिरनार और राजाने छीन लिया या घर में चोर आगये, या घरमें
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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