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________________ २६६ ] चेतनका धैर्य एवं सास अपनी चरम सीमा पर पहुँच रहा था। उसने अपने शम-दम और समाधिरू अमोघ अस्त्रोंका भली-भांति अभ्यास कर लिया था और भेद विज्ञानरूप पेनी देवीका प्रयोग भी उसे सुगम था उसकी । उद्दाम वासनाएं शिविल एवं जर्जरित हो गई थी, संवेग और वैराग्यकी शक्ति बन रही थी और वह समय भी तूर नहीं था जब वह मोहके प्रास्या जैसे वीरको मात्र में विनष्ट करदे। को अपनी अतुल शक्ति पर पूरा विश्वास था, वह कारकं साधन सम्पन्न था। इतनेमें सुमनने कर चेतनसे कहा कि- महाराज! आप सावधान रहें, मोहने अनेक जान फैज़ा है, यदि कदाचित् आप उनमें फस गएको र बाकी बहुत बुरी दशा होगी, मैंने आपको मानकी चेतावनी दे दी है, अतः मेरा कोई नहीं है। ऐनको सुनकी बातों पर कुछ भी श्राव नहीं हुआ । अब चेतनने पुनः अपनी धनन्तशनिकी ओर देखा, इधर सैनिक वालोंको ध्वनि हो रही थी, उसी समय चेतनने भेद विज्ञानरूप छेनीस प्रत्याख्यान नामक सूरका निशत किया. और ममतारूपी लंगोटी तथा ग्रन्थिको उखाड कर फेंक दिया, और परम शान्त दिगम्बर गुड़ाको चाrn fear । यद्यपि मोहके धारणा किया सेनापतियोंने काफी प्रतिरोध किया, और अपने अनेक अस्त्र-शस्त्रों द्वारा गनको दानि पहुँचाने का प्रयत्न भी किया परन्तु ऐननने अपने नेत्र-विज्ञानरूर दुफारेसे मवका प्रतिकार करते हुए अमनपुर में प्रवेश किया। इस नगर में मोहका प्रबल सेनानी प्रमाद अभी श्रवशिष्ट था और वह चेतनके कार्यो में भारी विघ्न करता था । श्रतः चेतनने समाधिपती असे प्रमादका भी क्षणमात्रमें नियाग कर दिया, प्रसारके गिरनेही विकथा निद्रा, प्रणय श्रादि उसके अन्य वीर साथी भी धराशायी हो गए। प्रमा हनन होजानेसे मोहका सेनामें खलबली मच गई, और अशिष्ट शूरगण अपनी-अपनी जान बचाकर भागनेको उद्यत हो गए और प्रमणपुर शत्रुओंसे खाकी हो गया। अब चेतन अपनी परि ग्राम विशुद्धिको बढ़ाता हुआ 'श्रप्रमतपुर पहुंचा। अब मोह चूंकि शक्रिहीन हो गया था। यतः अपनेको इधर-उधर का दिवाकर रहने लगा। वह ऐसे अवसर की प्रतीक्षामें था, कि चेतन अपने स्वरूपसे जरा अनेकान्त [ वर्ष १४ भा शिथिल हो तो मैं उसे धर दबाऊँ । परन्तु चेतन महा विवेकी, अपने अतुल साहसका धनी, सदा अपने में सावधान रहता था इस कारण शत्रुदलको यह अवसर ही नहीं मिलता था जिससे वह अपने उद्देश्यमें सफल हो सके । अब चेतन निज स्वरूपमें सावधान हो आहार-विहार आदि सभी बाधक क्रियाओंका परित्यागकर पद्मासन मुद्रामें अब स्थित हो भेद-विज्ञान, विवेक और समाधि इन अस्त्रोंको साथ ले ध्यान में सुस्थिर हो गया और क्षणमात्र में तीन शत्रुओंका नरक, वियंच और देवधायुका विनाशकर अनगर में आकर यहां उसने अपनी अपूर्वकरण परिणतका विका किया । तथा तृतीय करके सहारे नवमपुरको प्राप्त किया और वहां दर्शनावरण, मोहनीय और नामकर्मक ती सुभटोंको पराजिनकर चेतन दशमपुरमें प्राप्त हुआ। यहां भी उसने सुषम लोभ नामक सुभटको क्षणमात्रमें विजितकर और ग्यारहवें उपशान्त नगरका उल्लंघनकर अपनी भेदविज्ञान रूपी परमपनी पैनीसे मोह शत्रुका सर्वाविनाशकर क्षीणमोहपुरमें पास किया। यहां चेननकं यथान्यात नामका सुखमय चा स्त्रगुण प्रकट हुआ । श्रनन्तर चेतनरायने घानियाकर्मकी प्रकृति रूप मोलह सुभटोंको विनष्टकर लोकचलोकको देखनेवाले अनुपम केवलज्ञानकोशको प्राप्त किया। 1 अब चेतनकी सम्पूर्ण धात्म-शत्रिका विकास हो गया। जो अनन्त गुण अनादिकालसे प्रच्छन्न हो रहे थे वे सब प्रकट हो गये चेतनकी जो आन्तरिक शनि प्रकट हुई वह इतनी महान् और चारचर्यकारक थी कि उसका इस लेपनी बयान नहीं हो सकता । चेतनने इस सयोगिपुर में दीर्घकाल तक अवस्थान कर जगतका महान कल्याण किया - लोकको दुःखनिवृत्तिका साधन बतलाया, और मोहरात्रु पर कैसे विजय प्राप्त की जा सकती है उसका एक थादर्श रूप उपस्थित किया । अनन्तर चेतनने योगनिरोधकर और प्रयोगपुरमें पहुँच कर क्षणमात्रमें अशिष्ट बहतर और तेरहपचासी - कर्म-शत्रुनोंका --निपात किया और सिद्धालय में निज स्वरूपमें सुस्थिर हो गया जहांसे फिर कभी धाना नहीं हो सकता, और जो अनन्तकाल तक अपने चिदानन्द स्वरूपमें निमग्न रहता है। 1 (क्रमशः )
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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