Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामाणिः
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इसी प्रकार अस्तिक्य गुण भी सम्यग्दर्शन गुणका निर्दोष ज्ञापक हेतु है । यदि कोई यो कहे कि दूसरे नैयायिक, सांख्य, आर्यसमाज, मोहमदानुयायी, ईशवादी आदि जनोंके भी अपने अपने अभीष्ट तत्त्वोंमें आस्तिकपना विद्यमान है और आपने सम्यग्दर्शन गुण उनमें माना नहीं है । अतः सम्यग्दर्शनको सिद्ध करनेके लिए दिया गया आस्तिक्य हेतु व्यभिचारी हुआ। ग्रन्थकार कहते हैं कि यह कहना तो ठीक नहीं है। क्योंकि उनके द्वारा श्रद्धान किये गये सर्वथा एकांतरूप तत्त्वोंकी प्रत्यक्ष
और अनुमान आदि प्रमाणोंसे बाधित हो जानेके कारण व्यवस्था नहीं हो सकती है । अतः भगवान् श्रीअर्हन्त देव और उनके द्वारा उपदिष्ट वरतुभूत स्याद्वाद सिद्धांत इन दोनोंके श्रद्धानसे परान्मुख होरहे उन एकांतवादियोंके नास्तिकपनेका निर्णय हो चुका है । उसी बातको पूज्य स्वामी श्रीसमंतभद्राचार्यने देवागम स्तोत्रमें इस प्रकार कहा है कि हे ! जिनेंद्र देव ! तुम्हारे मतरूपी अभृतसे बहिर्भूत हो रहे और सर्वथा एकांतोंको बकनेकी लत रखनेवाले तथा अपनी ढपली और अपना रागके अनुसार मानी हुयी कल्पित आत्माके या स्वकीय तत्त्वोंके अभिमानसे जले हुए पुरुषोंका अपना अभीष्ट पदार्थ प्रत्यक्षप्रमाणसे ही बाधित हो जाता है अथवा मैं ही यथार्थ वक्ता हूं इस आप्तपनेकी अभिमानअग्निमें जो जले जा रहे हैं उनका इष्टतत्त्व दृष्ट प्रमाणसे बाधित हो जाता है । भावार्थ-जो पुरुष अग्निसे भुरस गया है और उसकी अव्यर्थ औषधि माने गये अमृतका सेवन वह नहीं करता है । उसको अपनी अभीष्ट नीरोगताकी प्राप्ति नहीं हो पाती है । बालगोपाल भी उसकी इस मूर्खतापर उपहास करते हैं, तैसे ही कई एकांतवादी तो आत्माको ही नहीं मानते हैं । कोई आत्माके ज्ञान, सुख आदिको निजका गुण नहीं मानते हैं । कोई मतवाले वादी अन्य मतानुयायियोंको मारनेतकका उपदेश देते हैं, इत्यादि प्रकारसे प्रामाणिक तत्त्वोंका तिरस्कारकर अप्रामाणिक सिद्धान्तोंका बोझ ढोनेवाले एकान्तवादियोंके यहां आत्मा, परलोक, पुण्य, मोक्ष, आदिकी व्यवस्था ठीक नहीं है । अतः इनको आस्तिकपना नहीं है । ठीक आस्तिकपना सम्यग्दृष्टिमें ही पाया जावेगा। - तदनेन प्रशमादिसमुदायस्यानैकान्तिकत्वोद्भावनं प्रतिक्षिप्तम् ।
इस कारण इस उक्त कथनके द्वारा प्रशम आदि यानी प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य इन चारोंके समुदायरूप हेतुका व्यभिचार दोष उठाना भी खण्डित करदिया गया है । जब अकेले, अकेले प्रशम आदि गुणोंको हेतु बनानेपर व्यभिचारदोष नहीं है उनका समुदाय करनेपर तो कैसे भी अनैकान्तिक दोष नहीं हो सकता है । क्योंकि हेतुके शरीरमें अधिक विशेषण लगा देनेसे उसकी व्याप्यता बढ जाती है । अर्थात् वह हेतु पहिलेसे और भी थोडे स्थल में पहुंच पाता है । हेतुको अधिक स्थान मिलनेपर व्यभिचार दोषको सहायता भी प्राप्त होवे, किन्तु चारों गुणोंको एकत्रित कर हेतु बनानेसे बड़ी सुलभतासे दोषोंका वारण हो जाता है । वस्तुके स्वरूपको न समझनेवाले साधारण अजैन जनोंके संवेग, अनुकम्पा आदि गुण यथार्थ नहीं हैं, गुणाभास हैं । कोरे दिखाऊ हैं ।