Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
प्रकरणमें प्रशम आदिसे सम्यग्दर्शनका अनुमान किया है । उस सम्यग्दर्शनगुणके न होनेपर मिथ्या. दृष्टि जीवोमें प्रशम आदि गुणोंका होना असम्भव है । यदि वहां प्रशम आदि गुणोंका सम्भव होना मानोगे तो मिध्यादृष्टिपना नहीं सम्भवेगा । भावार्थ — जहां प्रशम आदि एक, दो, तीन या चारों हैं, वहां सम्यग्दर्शन अवश्य है। चौथे गुणस्थानसे लेकर उपरिमगुणस्थानोंमें उक्तगुण पाये जाते हैं । मिथ्यादृशामपि केषाञ्चित्क्रोधाद्यनुद्रेकदर्शनात् प्रशमो ऽनैकान्तिक इति चेन्न, तेषामंपि सर्वयैकान्तेऽनन्तानुबन्धिनो मानस्योदयात् । स्वात्मनि चानेकान्तात्मनि द्वेषोदयस्यावश्यंभावात् पृथिवीकायिकादिषु प्राणिषु हननदर्शनाच्च ।
कोई आक्षेपक दोष उठारहा है कि किन्ही किन्हीं मिध्यादृष्टियों के भी क्रोध आदिकका तीव्र 'उदय नहीं देखा जाता है । इस कारण उनकी आत्मामें शान्ति, क्षमा, उदासीनता आदिरूप प्रशम विद्यमान हैं। किन्तु सम्यग्दर्शन नहीं हैं। अतः आपका सम्यग्दर्शनको सिद्ध करने में दिया गया प्रशम रूपहेतु व्यभिचारी हुआ । अनेक यवन, ( मौलवी ) ईसाई, ( पादरी ) त्रिदण्डी आदि पुरुषोंमें भी उत्कृष्ट शान्ति पायी जाती है । देशसेवक लोग मन्दकषायी होते हैं। यहांतक कि उनको मारा पीटा भी जावे तो चूँतक नहीं करते हैं। तभी तो पञ्चाध्यायीकारने प्रशम आदि चारोंको मिध्यादृष्टि और अभव्यों में भी स्वीकार किया है। आचार्य कहते हैं कि ऐसा कहोगे तो सो भी ठीक नहीं है। क्योंकि - शान्तिका बाना पहिने हुए उन मिथ्यादृष्टियोंके भी अपने माने हुए सर्वथा एकान्त मतोंमें अनन्तानु बन्धी मानका तीव्र उदय होरहा है कि हमारा मत ही संसार में सबसे बढिया है और वास्तविक • स्वरूप से मानीगयी आत्मामें तथा अनेकान्तस्वरूप वस्तुको माननेवाले स्याद्वाद सिद्धान्त में अवश्य तीन द्वेषका उदय होरहा है । यों अनेकान्त आत्मक निजआत्मामें उनको द्वेष उपजरहा है । एवं पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक आदि जीवोंकी हिंसा करना भी उनमें देखा जाता है, अर्थात् आदिमें ही ऊपरसे शान्ति प्रकृतिके प्रतीत होते हुए उन भद्रपुरुषोंमेंसे अनेक पुरुष तो पृथिवी, जल, ..जीवको नहीं मानते हैं । कोई कोई तो कीट, पतङ्ग, मत्स्य, सिंह, सर्प, आदि की यहांतक कि सभी पशु, प्रक्षियों की हिंसाको हिंसा नहीं समझते हैं । जैनसिद्धान्तमें अहिंसाका जितना उच्च आदर्श माना है, उतना और किसी अन्य मतमें नहीं है । मन वचन, कायसे कृत, कारित, अनुमोदनासे दूसरोंको पीडा पहुंचानेकी प्रवृत्ति न करना चाहिये । अपनी आत्मामें राग, द्वेष, परिणामोंका होजाना ही अपने स्वाभाविक अहिंसा, क्षमा आदि गुणोंकी हत्या करना है । मद्य, मांस, मधुमें भी सर्वदा उसी रूप अनेक जीवप्रतिक्षण उत्पन्न होते और मरते रहते हैं । बालका अग्रभाग भी जीवोंकी उत्पत्तिका योनिस्थान है । चून, मैदा, दूध, मसाला, रोटी आदि पदार्थ मर्यादासे भक्षण करने चाहिये। मर्यादाके बाहिर उनमें जीव उत्पन्न होजाते हैं अतः अभक्ष्य हैं। दो घडी पीछे जलको पुनः छानना चाहिये चित्रकी जीवमूर्तिको भी छिन्न भिन्न करना महादोष है, इत्यादि विचार उन मिध्यादृष्टियोंके नहीं होसकते हैं । अतः व्यक्त और अव्यक्तरूपसे अनन्तानुबन्धी क्रोध मानरूप