Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
तीन राग और तीव्र द्वेषके विद्यमान होनेसे उन मिथ्यादृष्टियोंके प्रशमगुण नहीं है । प्रशमाभास है। अनन्तानुबन्धीके उदय होनेपर भला सम्यग्दर्शनगुण कैसे सम्भव है ? कभी नहीं। अतः हमास सम्यग्दर्शनके सिद्ध करनेमें दिया गया प्रशम हेतु व्यभिचारी नहीं है । कोई भोले जीव बहिरंग लक्षणमें ही न फंसजावें, एतदर्थ पञ्चाध्यायीकारने ऊपरी दिखाऊ शान्तिको प्रशम कहकर मिथ्यादृष्टिओंमें प्रशमका सम्भव बतलाया है, किंतु स्वानुभूतिके साथ रहनेवाला वस्तुभूत प्रशम तो सम्यग्दृष्टिके ही पाया जासकता है ऐसा स्पष्ट किया है।
एतेन संवेगानुकम्पयोमिथ्यादृष्टिष्वसम्भवकथनादनैकान्तिकता हता । संचिनस्यानुकम्पावतो वा निःशंकप्राणिघाते प्रवृत्त्यनुपपत्तेः, सद्दष्टेरप्यज्ञानात्तत्र तथा प्रवृत्तिरिति चेत्, व्याहतमिदं " सदृष्टिश्च जीवतत्त्वानभिज्ञश्चेति " तदज्ञानस्यैव मिथ्यात्वविशेषरूपत्वात् ।
प्रशम हेतुका व्यभिचार दूर करनेवाले इस कथनसे संवेग और अनुकम्पा इन दोनों गुणोंका भी मिथ्यादृष्टियोंमें असम्भव होना कह दिया गया है । जो मिथ्यादृष्टि संसारसे उद्विग्न हो रहे हैं उनको भी परभवसंबंधी भोग, सुख, यश आदिकी आकांक्षायें लग रही हैं । शुद्ध आत्मतत्त्वको वे नहीं जान सके हैं। जीव-समास योनि-स्थानोंको जाने विना पूर्ण दया नहीं पलती है । अतः संवेग
और अनुकम्पा हेतुओंमें भी व्यभिचार दोष नष्ट कर दिया गया समझ लेना चाहिये । जो संवेगगुणधारी संसारसे भयभीत है तथा जो अनुकम्पागुणधारी दया-मूर्ति हो रहा है, उनकी शंका रहित होकर प्राणियोंके घात करनेमें निरर्गल प्रवृत्ति होना नहीं बन सकता है । यदि कोई यों कहे कि सम्यग्दृष्टिके भी अज्ञानके वशसे वहां जीवोंको घात करनेमें इस प्रकार शंकारहित प्रवृत्ति होती हुयी देखी जाती है। चौथे गुणस्थानमें त्रस-हिंसा और स्थावर-हिंसाका त्याग नहीं है, ऐसा कहनेपर तो हम जैन कहेंगे कि यह कहना ही व्याघातदोषसे युक्त है जो सम्यग्दृष्टि है, वह जीव तत्त्वको अवश्य जानता है । अतः उन जीवोंके ऊपर अवश्य दया करेगा। सम्यग्दृष्टि होते हुए जीवतत्त्वोंको न जाने इस कथनमें वदतोव्याघात दोष है । उद्देश्य दल ठीक है तो विधेयदल ठीक नहीं, और यदि विवेयदल सत्य है तो उद्देश्य दल झूठा है । वह जीवतत्त्वमें अज्ञान होना ही मिथ्यात्वका एक विशेष स्वरूप है। पांच प्रकारके मिथ्यात्वोंमेंसे अज्ञान नामका मिथ्यात्व भी अधिक बलवान् हैं। अतः संवेग और अनुकम्पावाले जीवोंके अवश्य सम्यग्दर्शन होगा और वे शंकारहित होकर जीवोंकी निरर्गल हिंसा नहीं करते हैं, अतः हमारे हेतुमें व्यभिचार दोष नहीं है । .
परेषामपि स्वाभिमततत्त्वेष्वास्तिक्यस्य भावादनैकान्तिकत्वमिति चेत् न, सर्वथैकान्ततत्त्वानां दृष्टेष्टबाधितत्वेन व्यवस्थानायोगादनकान्तवादिनां भगवदर्हत्स्याद्वादश्रदानविधुराणां नास्तिकत्वनिर्णयात् । तदुक्तं, " त्वन्मतामृतबाह्यानां सर्वथैकान्तवादिनाम् । आत्माभिमानदग्धानां स्वष्टं दृष्टन बाध्यते " इति ।