Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
एक एक स्थितिबंध पूर्ण हो सकेगा। यहां भी सर्व व्यवस्था पूर्वके समान यथाक्रम ( नंबर बार ) समझ लेना । इस प्रकार पांच परिवर्तनरूप संसारसे डरते रहनेको संवेग कहते हैं । यद्यपि सम्यदृष्टि जीव इति, भीति आदिक कोई भय नहीं होता है, उसको अपनी मृत्यु से भी रंच मात्र भय नहीं है, किंतु पाप कर्मोसे डरता रहता है । अतः कुत्सितक्रियाओं की निवृत्ति में उपयोगी होरहा ऐसा भय सम्यग्दृष्टि के माना है । इसको वैराग्य भी कहा जा सकता है । भय कर्मके उदय या उदीरणासे होनेवाला यह भय नहीं है ।
त्रसस्थावरेषु प्राणिषु दयानुकम्पा । जीवादितत्त्वार्थेषु युक्त्यागमाभ्यामविरुद्धेषु याथात्म्योपगमनमास्तिक्यम् ।
कहीं कहीं द्वींद्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, आत्माओंको प्राणी और वनस्पतिकायिकोंको भूत तथा पञ्चेन्द्रियों को जीव एवं शेष आत्माओं को सत्व शद्वसे कहा है, किंतु वे सब उस और स्थावरों में गर्भित हैं । अतः त्रस और स्थावर कायके जीवोंमें दयाभाव रखना अनुकम्पा गुण है । तथा समीचीन युक्ति और आगमके द्वारा अविरुद्ध रूपसे निर्णीत किये गये जीव, कर्म, स्वर्ग, मोक्ष, पुण्य, पाप, आदि तत्त्वार्थो में वास्तविकंपनेको स्वीकार करना आस्तिक्य गुण है । शद्वशास्त्र से भी आस्तिक्य शद्वकी निरुक्ति इस प्रकार है कि परलोक, पुण्य, पाप, मोक्ष आदि अतीन्द्रिय तत्त्वोंके माननेमें जिसकी श्रद्धा है, उसको आस्तिक कहते हैं " अस्तिनास्तिदिष्टं मतिः " आस्ति परलोक इत्येवं मतिर्यस्य स आस्तिकः । आस्तिक पुरुषके भावको आस्तिक्य कहते हैं ।
एतानि प्रत्येकं समुदितानि वा स्वस्मिन् स्वसंविदितानि परत्र कायवाग्व्यवहार विशेषलिंगानुमितानि सरागसम्यग्दर्शनं ज्ञापयन्ति, तदभावे मिथ्यादृष्टिष्वसम्भवित्वात्, सम्भवे वा मिथ्यात्वायोगात् ।
आत्माका स्वाभाविकगुण सम्यग्दर्शन तो परोक्ष है । सर्वज्ञसे अतिरिक्त जीवोंको उसका अनुमानसे ज्ञान होसकता है । प्रशम, संवेग, अनुकम्पा, और आस्तिक्य इनमेंसे एक एक गुण या ये चारों ही एकत्रित होकर अपनी आत्मामें स्वसंवेदनप्रत्यक्ष से जाने जारहे हैं, वे ज्ञापक हेतु अपने में सम्यग्दर्शनगुणका अनुमान करा देते हैं और अपने में साध्य के साथ हेतुकी व्याप्ति ग्रहणकर जान लिये गये विलक्षण शरीरकी चेष्टा, वचनव्यवहार, प्रशान्तक्रिया, आदि विशेष ज्ञापक लिङ्गों से दूसरे आत्माओंमे प्रशम आदि गुणोंका अनुमान करलिया जाता है और फिर अनुमानसे जानेगये प्रशम आदि ज्ञापक हेतु दूसरोंकी आत्मामें सरोगसम्यक्त्वका अनुमान करादेते हैं । यह अनुमितानुमान है। प्रशम आदि गुणोंकी सम्यग्दर्शन गुणके साथ समव्याप्ति है । व्यस्त और समस्त भी प्रशम आदि गुण ज्ञापक हेतु हैं। परोक्ष सम्यग्दर्शनगुण साध्य है । सम्यग्दर्शनगुण अतीन्द्रिय है । यदि अतीन्द्रिय नहीं होता तो प्रशम आदिक, साध्यको सिद्ध करनेके लिये सम्यग्दर्शन भी हेतु होसकता था। क्योंकि समव्याप्तिवाले. साव्य और हेतुमेंसे कोई भी ज्ञात होकर दूसरे अज्ञातका ज्ञापक हेतु होसकता है । इसीलिये तो