Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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४, २,७, २६.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे सामित्तं
[२५ माणपुंजस्स समयं पडि परिसदंतस्स कधं उदयववएसो ? ण, जीव-कम्मविवेगमेसफलं दट्टण उदयस्स फलत्तब्भुवगमादो। जदि एवं तो असादवेदणीयोदयकाले सादावेदणीयस्स उदओ णत्थि, असादावेदणीयस्सेव उदओ अस्थि ति ण वत्तव्यं, सगफलाणुपायणेण दोणं पि सरिसत्तुवलंभादो ? ण, असादपरमाणूणं व सादपरमाणणं सगसरूवेण णिज्जराभावादो। सादपरमाणओ असादसरूवेण विणस्संतावत्थाए परिणमिण विणस्संते दहण सादावेदणीयस्स उदो णत्थि त्ति वुच्चदे । ण च असादावेदणीयस्स एसो कमो अत्थि, [असाद]-परमाणूणं सगसरूवेणेव णिज्जरुवलंभादो। तम्हा दुक्खरूवफलाभावे वि असादावेदणीयस्स उदयभावो जुज्जदि त्ति सिद्धं ।
शंका-बिना फल दिये ही प्रतिसमय निर्जीर्ण होनेवाले परमाणुसमूहकी उदय संज्ञा कैसे बन सकती है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, जीव व कर्मके विवेकमात्र फलको देखकर उदयको फलरूपसे स्वीकार किया गया है।
शंका-यदि ऐसा है तो असातावेदनीयके उदयकालमें सातावेदनीयका उदय नहीं होता, केवल असातावेदनीयका ही उदय रहता है ऐसा नहीं कहना चाहिये, क्योंकि अपने फलको नहीं उत्पन्न करनेकी अपेक्षा दोनोंमें ही समानता पायी जाती है।
समाधान-नहीं, क्योंकि, तब असातावेदनीयके परमाणुओंके समान सातावेदनीयके परमाणुओंकी अपने रूपसे निर्जरा नहीं होती। किन्तु विनाश होनेकी अवस्थामें असातारूपसे परिणम कर उनका विनाश होता है यह देखकर सातावेदनीयका उदय नहीं है, ऐसा कहा जाता है। परन्तु असातावेदनीयका यह क्रम नहीं है, क्योंकि, तब असाताके परमाणुओंकी अपने रूपसे ही निर्जरा पायी जाती है। इस कारण दुखरूप फलके अभावमें भी असातावेदनीयका उदय मानना युक्तियुक्त है, यह सिद्ध होता है। - विशेषार्थ--साधारणतः सांसारिक सुख और दुःखकी उत्पत्तिमें सातावेदनीय और असातावेदनीयका उदय निमित्त माना जाता है। सुखके साथ सातावेदनीयके उदयकी और दुखके साथ असातावेदनीयके उदयकी व्याप्ति है । यह व्याप्ति उभयतः मानी जाती है । इसलिए यह प्रश्न उठता है कि केवली जिनके असातावेदनीयका उदय माननेपर उनके क्षुधा, तृषा और व्याधि आदि जन्य बाधा अवश्य होती होगी, अन्यथा उनके असातावेदनीयका उदय मानना निष्फल है। समाधान यह है कि कोई भी कार्य बाह्य और अन्तरङ्ग दो प्रकारके कारणोंसे होता है। यहाँ मुख्य कार्य क्षुधा जन्य बाधा है। यदि शरीरके लिये भोजनकी आवश्यकता हो और ऐसी अवस्थामें भोजनकी इच्छा हो तो क्षुधाजन्य बाधा होती है और इसमें असातावेदनीयका उदय कारण माना जाता है । किन्तु केवली जिनका औदारिकशरीर त्रस और निगोदिया जीवोंसे रहित परमशुद्ध होता है अतएव उनके शरीरको भोजन पानीकी आवश्यकता नहीं रहती और मोहनीयका अभाव हो जानेसे उनके भोजन और पानी ग्रहण करनेकी इच्छा भी नहीं होती, इसलिए
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