________________
४, २, ७, १६६.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया
एत्थ एसा संदिही
.
.
. .
०
.
०
०
०
०
०
०
०
०
०
०
०
०
११ । १९ २७ | ३५ १० १० १८ | २६ | ४|४६
८८८८/१६ २४ | ३२ ४० ४८
सो च सव्वजीवेहि अणंतगणो। एवमेकहाणे वग्गणाओ फद्दयाणि च हविय अविभोगपलिच्छेदपरूवणं कस्सामो। सा च अविभागपलिच्छेदपरूवणा तिविहाबग्गणपरूवणा फद्दयपरूवणा अंतरपरूवणा चेदि । अविभागपडिच्छेदपरूवणाए सह चउव्विहा किण्ण उत्ता? ण, अणवगयाणं अविभागपडिच्छेदाणमाधारत्तं विरुज्झदि त्ति कट्ट अविभागपडिच्छेदपरूवणाए पुव्वं चेव कदत्तादो । तत्थ वग्गणपरूवणा तिविहापरूवणा पमाणमप्पाबहुगं चेदि । तत्थ परूवणा सुगमा, अविभागपडिच्छेदपरूवणादो चेव वग्गणसण्णिदअविभागपडिच्छेदाणमत्थित्तसिद्धीदो ।
यहाँ यह संदृष्टि है-(मूलमें देखिये )।
वह सब जीवोंसे अनन्तगुणा है। इस प्रकार एक स्थानमें वर्गणाओं और स्पद्धकोंको स्थापित करके अविभागप्रतिच्छेदोंकी प्ररूपणा करते हैं-वह अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणा तीन प्रकारकी है-वर्गणाप्ररूपणा, स्पर्द्धकप्ररूपणा और अन्तरप्ररूपणा।।
शंका-अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणाके साथ वह चार प्रकारकी क्यों नहीं कही गई है ?
समाधान नहीं, क्योंकि, अविभागप्रतिच्छेदोंके अज्ञात होनेपर उनके आधारका कथन करना विरोधको प्राप्त होता है, ऐसा मानकर अविभागप्रतिच्छेदोंकी प्ररूपणा पहले ही कर आये हैं।
उनमेंसे वर्गणाप्ररूपणा तीन प्रकारकी है-प्ररूपणा, प्रमाण और अल्पबहुत्व। इनमेंसे प्ररूपणा सुगम है, क्योंकि, अविभागप्रतिच्छेदोंकी प्ररूपणा करनेसे ही वर्गणा संज्ञावाले अविभाग प्रतिच्छेदोंका अस्तित्व सिद्ध होता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org