Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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४७४] छक्खंडागमे वेयणाखंडं
४, २, १३, ३०९. जस्स मोहणीयवेयणा भावदो जहण्णा तस्स सत्तण्णं कम्माणं वेयणा भावदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ ३०६ ॥
सुगमं । णियमा अजहण्णा अणंतगुणभहिया ॥ ३१० ॥
कुदो ? तिण्णं पादिकम्नाणं खीणकसाएण घादिजमाणअणुभागस्स एस्थ संतसरूवेण उवलंभादो, वेयणीय-णामा-गोदाणं साद-जसगित्ति-उच्चागोदाणुभागस्स बंधेण उकस्समावोवलंभादो, मणुसाउअभावस्स वि पसत्थत्तणेण अणंतगुणत्तवलंभादो।।
जस्स आउअवेयणा भावदो जहण्णा तस्स छण्णं वेयणा भावदो कि जहण्णा अजहण्णा ॥३११ ॥
सुगमं । णियमा अजहाणा अणंतगुणभहिया ॥३१२ ॥
कुदो ? वेयणीय-धादिकम्माणं खवगपरिणामेहि एत्थ घादामावादो मणुस्सेसु पंचिंदियतिरिक्खेसु च मज्झिमपरिणामेण बद्धतिरिक्खअपज्जत्त-[संजुत्त-]आउअजहण्ण'. भावेसु अणुव्वेल्लिदउच्चागोदेसु सव्वविसुद्धवादरतेउवाउपजत्तएसु च अघादिदणीचा. गोदाणुभागेसु सगजहण्णादो गोदाणुभागस्स अणंतगुणत्तुवलंभादो।
जिस जीवके मोहनीयकी वेदना भावकी अपेक्षा जघन्य होती है उसके सात कर्माकी वेदना भावकी अपेक्षा क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ ३०९ ॥
यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अजघन्य अनन्तगुणी अधिक होती है ॥ ३१० ॥
कारण एक तो तीन घाति कर्मोका क्षीणकषाय गुणस्थानवी जीवके द्वारा घाता जानेवाला अनुभाग यहाँ सत्त्व रूपसे पाया जाता है; दूसरे वेदनीय कर्मकी साता वेदनीय प्रकृतिके, नामकी यशःकीर्ति प्रकृतिके और गोत्रकी उच्चगोत्र प्रकृतिके अनुभागमें यहाँ बन्धसे उत्कृष्टता पायी जाती है; तीसरे मनुष्यायुका अनुभाग भी प्रशस्त होनेके कारण यहाँ अनन्तगुणा पाया जाता है।
जिस जीवके आयुकर्म की वेदना भावकी अपेक्षा जघन्य होती है उसके नामकर्मको छोड़कर शेष छह कर्मोकी वेदना भावकी अपेक्षा क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥३११॥
यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अजघन्य अनन्तगुणी अधिक होती है ॥ ३१२ ॥
कारण कि क्षपक परिणामों के द्वारा यहाँ घात सम्भव न होनेसे वेदनीय और घातिया कर्मोंका अनुभाग अनन्तगुणा पाया जाता है। तथा मध्यम परिणामके द्वारा जिन्होंने तिर्यंच अपर्याप्त सम्बन्धी आयुके जघन्य अनुभागको बांधा है ऐसे मनुष्यों एवं पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंमें
और उच्च गोत्रकी उद्वेलना न करनेवाले तथा नीच गोत्रके अनुभागको न घातनेवाले सर्वविशुद्ध बादर तेजकायिक एवं वायुगायिक पर्याप्त जीवोंमें गोत्रका अनुभाग अपने जधन्यकी अपेक्षा अनन्तगुणा पाया जाता है।
१ अ-श्रा-काप्रतिषु 'जहण्णा' इति पाटः ।
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