Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 512
________________ ४, २, derपरिमाणविहाणाणियोगद्दारं [ ४७९ एदं पुच्छासुतं तिविहं संखजं णवविहमसंखेचं अनंतं च अस्सिदूण वक्खाणेयव्वं । णाणावरणीय दंसणावरणीयकम्मस्स असंखेज लोगपयडीओ ||४|| १४, ४. ] I णाणावरणीय स' दंसणावरणीयस्स च कम्मस्स पयडीयो सहावा सत्तीयो असंखेलोगमेत्ता । कुदो एत्तियाओ होंति त्ति णवदे १ आवरणिञ्जणाण- दंसणाणमसंखेजलोग मेतभेदुवलंमादो । तं जहा - सुहृमणिगोदस्स जहण्णलद्धिअक्खरं तमेगं णाणं । तण्णिरावरणं, अक्खस्स अनंतभागो णिच्चग्घाडियओ इदि वयणादों जीवाभावप्यसंगादो वा । पुणो द्धिअक्खरे सव्वजीवैहि खंडिदे लद्धे तत्थेव पक्खित्ते विदियं गाणं होदि । पुणो विदियणाणे सव्त्रजीवेहि खंडिदे लद्धे तत्थेव पक्खित्ते तदियं णाणं होदि । एवं छवड्डिकमेण यव्वं जाव असंखेज्जलोगमेत्तट्टाणाणि गंतूण अक्खरणाणं समुप्पण्णे त्ति । अक्खरणाणादो उवरि एगेगक्खरुत्तरवड्डीए गच्छमाणणाणाणं अक्खरसमासोत्ति सण्णा । एत्थ अक्खरणाणादो उवरि छविहा वड्डी णत्थि, दुगुण-तिगुणादिकमेण अक्खर इस सूत्र का व्याख्यान तीन प्रकारके संख्यात और नौ प्रकारके असंख्यात व नौ प्रकार के अनन्तका आश्रय करके करना चाहिये । ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्मकी असंख्यात प्रकृतियाँ हैं ॥ ४ ॥ ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्मकी प्रकृतियाँ अर्थात् स्वभाव या शक्तियाँ असंख्यात लोक प्रमाण हैं । शंका-उनकी प्रकृतियाँ इतनी है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-: - चूँकि आवरणके योग्य ज्ञान व दर्शन के असंख्यात लोक मात्र भेद पाये जाते हैं अतएव उनके आवारके उक्त कर्मोंकी प्रकृतियाँ भी उतनी ही होनी चाहिये । यथा-सूक्ष्म निगोद जीवका जो जघन्य लब्ध्यक्षर रूप एक ज्ञान है वह निरावरण है, क्योंकि, अक्षरके अनन्तवें भाग मात्र ज्ञान सदा प्रगट रहता है, ऐसा आगमवचन है । अथवा, ज्ञानके अभाव में चूँकि जीवके अभावका भी प्रसंग आता है, अतएव अक्षरके अनन्तवें भाग मात्र ज्ञान सदा प्रगट रहेता है, यह स्वीकार करना चाहिये । अब लब्ध्यक्षरको सब जीवोंसे खण्डित करनेपर जो लब्ध उसे उसी में मिलानेपर द्वितीय ज्ञान होता है । फिर द्वितीय ज्ञानको सब जीवोंसे खण्डित करनेपर जो लब्ध हो उसको उसी में मिलानेपर तीसरा ज्ञान होता है । इस प्रकार छह वृद्धियोंके क्रमसे असंख्यात लोक मात्र छह स्थान जाकर अक्षर ज्ञानके पूर्ण होने तक ले जाना चाहिये । अक्षरज्ञानके आगे उत्तरोत्तर एक एक अक्षरकी वृद्धिसे जानेवाले ज्ञानोंकी अक्षरसमास संज्ञा है । यहाँ अक्षरज्ञानसे आगे छह वृद्धियाँ नहीं है, किन्तु दुगु तिगुणे इत्यादि क्रमसे अक्षरवृद्धि ही होती है; ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं । परन्तु १ अ या काप्रतिषु 'णाणावरणीय-' इति पाठः । २ सुहुमणिगोदपजत्तयास जादस्स पढमंसमयहि । फासिंदियमदिपुत्रं सुदणाणं लद्धिक्खरयं ॥ गो जी. ३२१. | ३ श्र श्राकाप्रतिषु 'णिच्चुग्घादियो' इति पाठः । ४ सुहुमणिगोद अपजत्तयस्स जादरस पढमसमयम्मि । हवदि हु सरजहणं निघुग्घाडं - निरावरणं ॥ गो जी. ३१९. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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