Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 532
________________ ४, २, १४, ५१.) वैयणपरिमाणविहाणाणियोगहारं [४९९ जहा णाणावरणीयस्स समयपबद्धवदापयडीओ खेत्तपच्चासेण गुणिय आणिदाओ तहा एदेसि वि तिण्णं कम्माणं खेत्तपच्चासपयडिपमाणमाणेदव्वं । वेयणीयस्स कम्मस्स केवडियाओ पयडीओ॥४६॥ सुगमं । वेयणीयस्त कम्मस्स एकेका पयडी अण्णदरस्स केवलिस्स केवलिसमुग्धादेण समुग्धादस्स सव्वलोगं गदस्स ॥ ५० ॥ एदेण सुत्तेण खत्तपञ्चासपमाणं परूविदं संभालिदं वा, खेत्तविहाणे परूविदत्तादो। खेत्तपच्चासेण गुणिदाओ॥५१॥ वेयणीयस्स एक्कका पयडी खेत्तपच्चासेण गुणिदा संती असंखेज्जाओ पयडीओ होति । एक्का समयपबद्धहदापयडी' जदि घणलोगमेत्ता होदि तो सव्वासिं किं लभामो त्ति खेत्तपञ्चासगुणगारो साहेयव्यो। 'वेयणीयस्स कम्मस्स एकेका पयडी सव्वलोगं गदस्स केवलिस्स, खेत्तपञ्चासेण गुणिदाओ' ति कधमेत्थ भिण्णाहियरणाणं संबंधो ? ण, जिस प्रकार ज्ञानावरणीय कर्मकी समयप्रबद्धार्थता प्रकृतियोंको क्षेत्रप्रत्याससे गुणित करके लाया गया है उसी प्रकार इन तीनों ही कर्मों के क्षेत्रप्रत्यासरूप प्रकृतियोंके प्रमाणको लाना चाहिये। वेदनीय कर्मकी कितनी प्रकृतियाँ हैं ।। ४६ ॥ यह सूत्र सुगम है। केवलिसमुद्घोतसे समुद्घातको प्राप्त होकर सर्व लोकको प्राप्त हुए अन्यतर केवलीके जो वेदनीय कर्मको एक एक प्रकृति होती है ॥५०॥ इस सूत्रके द्वारा क्षेत्रप्रत्यासके प्रमाण की प्ररूपणा की गई है । अथवा, उसका स्मरण कराया गया है, क्योंकि उसकी प्ररूपणा क्षेत्रविधानमें की जा चुकी है। उन्हें क्षेत्र प्रत्याससे गुणित करनेपर वेदनीय कर्मकी क्षेत्रप्रत्यास प्रकृतियोंका प्रमाण होता है ॥ ५१ ॥ वेदनीय कर्मकी एक एक प्रकृति क्षेत्रप्रत्याससे गुणित होकर असंख्यात प्रकृतियाँ होती हैं। यदि एक समय प्रबद्धार्थता प्रकृति घनलोक प्रमाण है तो सब प्रकृतियाँ कितनी होंगी, इस प्रकार क्षेत्रप्रत्यासके गुणकारको सिद्ध करना चाहिये। __ शंका-'वेयणीस्स कम्मस्स एक्केका पयडी सव्वलोगं गदस्स केवलिस्स खेत्तपच्चासेण गुणिदाओ' यहाँ चूकि 'पयडी' पद एकवचन और 'गुणिदाओ' पद बहुवचन है, अतएव यहाँ इन भिन्न अधिकरणवालोंका संबंध किस प्रकार हो सकता है ? १ आप्रतौ '-पबद्धदा वयदा पयडी', काप्रती 'पबद्धदा पयदपयडी', ताप्रती पबदा पयदा पयडी' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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